२८८ काव्यदर्पण पड़ता है। प्रेषणीयता काव्य का साधन है, साध्य नहीं। कला का काम कविकृति के भावो का उद्दीपन करना और उसमें सौन्दयं लाना है । शब्द, छन्द, अलंकार, गुण आदि कला के बाह्य उपादान हैं। कला के विषय में इनका अनुशीलन आवश्यक है । शब्दों तथा वाक्यों का निरन्तर संस्कार करते रहने एवं उपयुक्त रौति से उनका प्रयोग करने से ही भावों का सुन्दर अभिव्यंजन होता है-उसमें अधिक-से-अधिक प्रभावोत्पादकता आती है। छन्द, अलंकार और गुण आदि भी काव्य के कलापक्ष की पुष्टि करते हैं । अतः, कला अभ्यासलब्ध वस्तु है, यह कहना कुछ संगत प्रतीत होता है। काव्य के इस कलापक्ष के लिए रवीन्द्रनाथ ने बहुत ही सुन्दर कहा है- "पुरुष के दफ्तर जाने के कपड़े सीधे-सादे होते हैं। वे जितने ही कम हो, उतने ही कार्य में उपयोगी होते हैं। स्त्रियों की वेश-भूषा, लज्जा-शर्म, भाव-भंगो समस्त सभ्य समाजों में प्रचलित है...."स्त्रियों का कार्य हृदय का कार्य है । उनको हृदय देना और हृदय को खींचना पड़ता है । इसीलिए बिल्कुल सरल, सीधा-सादा और नपा-नपाया होने से उनका कार्य नहीं चलता। पुरुषों को यथायोग्य होना आवश्यक है ; किन्तु स्त्रियों को सुन्दर होना चाहिए । मोटे तौर से पुरुषो के व्यवहार का सुस्पष्ट होना अच्छा है ; किन्तु स्त्रियों के व्यवहार में अनेक आवरण और श्राभास- इंगित होने चाहिए। साहित्य भी अपनी चेष्टा को सफल करने के लिए अलंकारों का, रूपकों का, छन्दों का और आभास-इंगितों का सहारा लेता है। दर्शन और विज्ञान की तरह निरलंकृत होने से उसका निर्वाह नहीं हो सकता।" "सुकुमार कला सत्य, शिव और सुन्दर की झांकी का प्रत्यक्ष दर्शन और इस साक्षात्कार से प्राप्त हुई आनन्दमय स्थिति का सुन्दर प्रतिभा द्वारा सहज एवं सुचारु उद्गार हैं।" अन्तःकरण का सम्बन्ध मस्तिष्क और हृदय से है। विचार का स्थान मस्तिष्क और भाव का स्थान हृदय है। विचारों में उथल-पुथल हुआ करता है। वह परिवर्तनशील है। पर, भाव में परिवर्तन नहीं होता । व्यक्ति-विशेष के विचारों में आकाश-पाताल का अन्तर पड़ जाता है; पर भावुक-से-भावुक के भाव में अन्तर नही पड़ता। सभी अपने बच्चे को प्यार करते है। देश-विशेष के कारण इसमें अन्तर नहीं पड़ता। प्रिय-वियोग का दुःख सभीको एक-सा होता है । इसीसे भाव को नित्य और विचार को अनित्य कहा जा सकता है। भाव सदा एकरस है। कहना चाहिए कि भाव ही मनुष्य को मनुष्यत्व प्रदान करता है और वही भाव काव्य का विषय है। यदि भाव को, सत्य, विश्वव्यापी और एक-रूप माने तो कविता में भी एक- रूपता होनी चाहिये पर ऐसी बात नहीं देखी जाती। इसका कारण मानव-स्वभाव को विचित्रता तया अनेकरूपता ही है। जब हमारी प्रवृत्ति ही सदा एक-सी नहीं रहती
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