पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/३७३

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२६० काव्यदर्पण यह अनुकरण चार प्रकार का होता है-१ आंगिक अर्थात् अंगों के संचालन श्रादि के द्वारा, २ वाचिक अर्थात् वचनों की भङ्गी से, ३ श्राहार्य अर्थात् भूषण, वसन आदि से संवेश-रचना द्वारा और ४ सात्विक अर्थात् स्तम्भ आदि देश सात्विक अनुभावों द्वारा अनुकरण-क्रिया सम्पन्न होती है।' आचार्यों ने नाटक के मुख्यतः तीन ही तत्त्व माने हैं-वस्तु या कथावस्तु, नायक और रस । शेष कथोपकथन, देश, काल, पात्र को, नायक के शैली को रस के तथा उद्देश्य को वस्तु के अन्तर्गत मान लेते हैं। नाटक की कथा का नाम वस्तु है। नाटकीय वस्तु का उतना ही विस्तार होना चाहिए जिसमें चार-पांच घंटों में वह दिखाया जा सके। कथावस्तु प्रख्यात हो- ऐतिहासिक वा पौराणिक हो ; अथवा उत्पाद्य हो, अर्थात् कल्पित हो या मिश्र हो, अर्थात् इन दोनों का जिसमें मिश्रण हो। ___ इत्र कथावस्तु के दो भेद होते हैं-१ आधिकारिक और २ प्रासंगिक । आधिकारिक वस्तु वह है जो अधिकारी से अर्थात् नाटक के फल भोगनेवाले व्यक्ति से सबंध रखनेवाली है। प्रासंगिक वस्तु वह है जो प्रसंगतः आयी हुई आधिकारिक वस्तु की सहायता करनेवाली है। अभिप्राय यह कि प्रासंगिक कथावस्तु आधिकारिक कथावस्तु के उद्देश्य को पुष्ट करती रहे ; एक दूसरे का विकास या उत्कर्ष का साधन हो। कथावस्तु के दो और भेद होते हैं-दृश्य और सूच्य। दृश्य वे हैं जिनका अभिनय रंगमंच पर प्रत्यक्षतः दिखलाया जाता है और सूच्य वे हैं जिनका अभिनय नहीं दिखलाया जाता-केवल सूचना दे दी जाती है । इनके विभाग का उद्देश्य यह है कि जो घटनाएँ मधुर, उदात्त, सरस, आवश्यक और रोचक हैं, वे तो समक्ष में श्रावें और जो नीरस, अनुचित, अनावश्यक और आरोचक हों, उनकी सूचनामात्र दे दी जाय । अर्थात्, उनसे दर्शकों को प्रकारांतर से परिचय करा दिया जाय । सस्य कथाओं या घटनाओं का निदर्शन पाँच प्रकार से होता है। उनके नाम हैं-१ विष्कंभक, २ प्रवेशक, ३ चूलिका, ४ अंकमुख और ५ अंकावतार । पहले में मध्यम पात्रों द्वारा और दूसरे में नीच पात्रों द्वारा आगे की घटना या कया का निर्देश किया जाता है। तीसरे में नेपथ्य से कथा को सूचना दे दी जाती है। चौथे में वे अभिनेता, जिनका अभिनय अंक के अन्त में होता है, आगे की घटना का निदर्शन कर देते हैं। पांच किलो अंक के अन्त में रहता है और आगामी अंक का मूल होता है । नाटक या सिनेमा में अब ऐसा नहीं होता। '. १ भवेदभिनयोऽवस्थानुकारः स चतुर्विधः । माझिको माचिकश्चैवसाहार्यः सात्विकस्तथा ।। सा० द०