३०८ काव्यदर्पण १५. अविमृष्ट-विधेयांश-पद्य में जिस पदार्थ का प्रधानतया वर्णन होना चाहिये उसको समास अथवा अन्य किसी प्रकार से अप्रधान बना देना ही अविमृष्ट- विधेयांश दोष कहलाता है। आज मेरे हाथों अन्त आया जान अपना देश से ही आज रामानुज मैं यहां करता प्रचारित हूँ युद्ध हेतु तुमको । यहां लक्ष्मणजी ने अपना नाम न लेकर अपने को रामानुज कहा है। भाव यह है कि मैं जगद्विजयो, शत्र-कुल-नाशक, महापराक्रमी, राम का भाई हूँ। मेरो शक्ति के समक्ष तुम तुच्छ हो । पर, यह सब भावपुञ्ज तभी निकलता जब राम का अनुज' यह पद रहता। किन्तु यहाँ षष्ठी-तत्पुरुष समास कर देने से राम-शब्दगत शौर्यादि लोकोत्तर गुणों का स्मरण ही नहीं होता। राम की प्रधानता दब गयो है, जो इस पद्य का मुख्य भाव था। १६. प्रतिकूलवर्ण-जहाँ विवक्षित रस के प्रतिकूल वर्णो को योजना होती है वहां यह दोष होता है। (क) मुकुट' की चटक लटक बिबि कुण्डल की __ भौह की मटक नेकि ऑखिन दिखाउ रे। (ख) शटकि चढ़ति उतरति अटा नैक न थाकति वेह । भई रहति नट को बटा अटकी नागर नेह । शृङ्गार रस में कोमल पदों की योजना से भाव उद्दीप्त होता है। परन्तु, वहाँ विरोधी-वर्ग प्रचुर-पद-योजना से प्रमाता को-रसभोक्ता को रस-बोध होने के बदले नीरसता प्रतीत होगी। टिप्पणी-यदि इस प्रकार स्वर्ग-प्रधान पदावली रौद्रादि रसों में आवे तो वहाँ वह गुण होगी। १७. हत्तवृत्त-जहाँ नियमानुसार छन्दोभंग हो वहां यह दोष होता है। स्वच्छन्द छन्द के समय में यह दोष दोष ही नहीं रह गया है । यह दोष कई प्रकार का होता है । एक-दो उदाहरण दिये जाते हैं- सरविस जैहें छुट पर रोटी के लाले तब सब बिवा होयेंगे बिस्कुट चाय के प्याले “दूसरे चरण में मति-भंग है। ले प्रलय-सी एक आकांक्षा विपुल बड़बाद योवन- मिट रहा अतृप्त वंचित लख न पायो तुम अचेतन । - इसमें अकोला' के दो अक्षर घर के चरण में और एक अधर उधर के
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