अर्थ-दोष ३१५ एक तो मदन घिसिख लगे, मुरछि परी सुषि नाहिं दूजे बद बदरा बरी घिरि-घिरि विष बरसाहि । इसके दूसरे चरण में पुनरुक्त है। क्योंकि, मूञ्छित होना और सुधि न होना एक ही बात है। ६. ग्राम्य-ग्राम्यजनोचित भाषा-भाव का प्रयोग करना इस दोष का मुल है। राजा भोजन दें मुझे रोटी-गुड़ भर पेट । इसकी व्याख्या स्वयं उदाहरण ही है। ७. संदिग्ध-जहाँ वक्त के निश्चित भाव का पता न लग सके वहाँ यह दोष होता है। गिरिजागृह में पूजन जावो, बैठ वहाँ पर ध्यान लगावो । यहाँ यह सन्देह होता है कि पार्वती के मन्दिर में जारी या इसाइयों के गिरिजाघर में जाओ। ८. निर्हेतु-किसी बात के कारण को न व्यक्त करना निहेतु है। घर-घर घूमत स्वान सम लेत नहीं कुछ वेत । देने पर भी कुछ न लेने और फिर भी घर-घर घूमने का कारण नही कहा गया है। टिप्पणी-लोक-प्रसिद्ध अर्थ में निहेतुक दोष नहीं होता। ६. प्रसिद्धि-विरुद्ध-जिस वस्तु के विषय में जैसी प्रसिद्धि हो उसके विपरीत वर्णन करना दोष है। (क) हरि दौड़े रण में लिये कर में धन्वा वाण । श्रीकृष्ण का धनुर्वाण धारण करना नहीं, चक्र धारण करना प्रसिद्ध है। (ख) हाँ जब कुसुम कठोर कठिन है तब मुक्ता तो है पाषाण जो बतु लता वश अपनी ही खानि का नाश कराती आप इस पद्य के पढ़ने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि मोतियों की भी होरों (पाषाणों) को-सी कहीं खानि (खानि) होती है जो लोक-प्रसिद्धि का ऐकान्तिक अपलाप है। समुद्र से मोती उत्पन्न होने की प्रसिद्धि ही नहीं, यथार्थता भी है। (ग) हम क्यों न पियें छल-छल करते जीवन का पारावार सखे । पारावार का पानी खारा होता है पर कविजी पीने को प्रस्तुत हैं, वह भी छल- छलाते हुए, लहराते हुए पारावार का। यदि यहाँ यह अर्थ करें कि जीवन दुखमय ही है जो खारा पानीवाले पारावार से कम नहीं तो हमारा कहना यह है कि जोवन रकान्त दुखमय ही नहीं जैसा कि पारावार एकान्त क्षारमय है।
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