३० काव्यदर्पण जैसे रसों का पारस्परिक अधिरोध रहता है वैसे पारस्परिक विरोध भी; किन्तु उत्कर्षापकर्ष आदि के विचार से यथास्थान रस-विरोध का परिहार भी हो जाता है। एक उदाहरण लें- कूरम नरिंद देव कोप करि बैरिन तें सहदल की सेना समसेरन ते भानी हैं। भनत 'कविद' भाँति भांति दे असीसन को ईसन के सीस पै जमात दरसानी है। वहाँ एक योगिनी सुभट खोपरी को लिये ___ सोनित पिवत ताकी उपमा बखानी है। प्याली ले चीनी की छकी जोबन तरग मानो रंग हेतु पीवत मजीठ मुगलानी है। यहां राज-विषयक रति-भाव को प्रधानता है। अन्त के तीन चरणों में वीभत्स रस और चौथे चरण में वीभत्स का अंगभूत शृङ्गार रस व्यजित है। ये राज-विषयक रति के अंग हैं। यद्यपि ये रख परस्पर विरोधी हैं तथापि इनके द्वारा राजा के प्रताप का उत्कर्ष हो सूचित होता है। अतः, विरोधी रसों के होने पर भी यहां दोष नहीं है। चौथी छाया वर्णन-दोष यह कई प्रकार का होता है, जिनमें निम्नलिखित दोष मुख्य हैं। (१) पूर्वापर-विरोध होती ही रहती क्षण-क्षण में शस्त्रों की भीषण झनकार । नभमंडल में फूटा करते बाणों के उल्का अंगार ॥ फिर छह ही पद्य के बाद यह वर्णन है- शस्त्रों का था हुआ विसर्जन न्याय दया को कर आधार । मू पर नहीं, किन्तु मन में भी बढ़ने लगा राज्य विस्तार ॥ जहाँ क्षण-क्षण में शस्त्रों की झनकार थी वहीं न्याय और दया पर निर्भर होकर शस्त्रों का विसर्जन था। फिर भी भू पर (ही) नहीं, मन में भी राज्य-विस्तार होने लमा। मन में तो मनमाना राज्य बढ़ सकता था पर भू पर राज्य विस्तार शन-विजन कर कैसे होने लगा। अचंभा की बात है।
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