दूसरी छाया गुणों से रस का सम्बन्ध माधुर्य, पोज और प्रसाद ये गुण हैं जो रसों में प्रतीत होते हैं। कारण वह कि इन्हें रख का विशेष धर्म कहा जाता है। भिन्न-भिन्न रसों के आस्वाद-काल में चित्त के भाव भिन्न-भिन्न हो जाते हैं। माधुर्य भाव शृङ्गार-रस का विशेष गुण है। क्योंकि, शृङ्गार की भावना सर्वाधिक मधुर प्रतीत होती है। केवल मधुरता के विचार से यदि मधुरता निर्धारित हो तो शृङ्गार-रस का स्थान सर्वप्रमुख होगा। है भी ऐसा हो। इस रस का सम्बन्ध सृष्टि के समस्त जीवमात्र से है। अतएव 'रस' शब्द से मुख्यतः इसीको प्रतीति होती है। शृङ्गार के बाद माधुर्य भाव के हृदय पिघलाने के दों और स्थान हैं। इन स्थानों में इसका स्वरूप खूब निखरा हुश्रा दीख पड़ता है। वे स्थान हैं वियोग और करुण। इष्ट वस्तु यदि प्राप्त न हो सके तो उसके लिए हृदय में एक विचित्र कसक होने लगती है। वह वस्तु प्राप्त रहने की स्थिति में जितनी मधुर लगती है, अप्राप्तिकाल में और भी उग्र-मधुर होकर भावना में जगी रहती है। अतः संयोग मधुर है तो वियोग मधुरतम । इसलिए विप्रलंभ शृङ्गार में संभोग की अपेक्षा अधिक मिठास है। इच्छित वस्तु का प्रभाव उसके माधुर्य को और तीवातितीव्र रूप में भासित करता है। अप्राप्ति की भावना से आकुल हृदय अतीत की घटनाओं का मधुर संस्मरण कर अत्यन्त विक्षुब्ध हो उठता है। फलतः, माधुर्य का अस्तित्व वियोग में सर्वोत्कृष्ट होता है। शकुन्तला के संयोग से सीता का निर्वासन अधिक हृदय-ग्राही प्रतीत होता है। विरह प्रेम की जाग्रत गति है और सुषुप्ति मिलन है।' इससे भी मनोमुग्धकर करुण है, जिसके लिए कुमार-संभव का रति-विलाप, घुवंश का अज-विलाप या जयद्रध-बध का उत्तरा-विजाप श्रादि का महत्त्व आगे रखा जा सकता है। यही मत ध्वनिकार का है। रही शान्त रस को बात । अवनिकार ने इस रस में माधुयं भाव को चर्चा नहीं की है। लेकिन, विषय-निवृत्ति-रूप स्थायी निवेद में आत्मसंतोष की मधुरता संभव है। अतएव इसे अमान्य नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार माधुर्य गुण के तीन स्थान हुए-शृङ्गार, करुण और शान्त । गुण यद्यपि रख-रूप आत्मा में रहनेवाले धर्म हैं, फिर भी शब्द और अर्थ रक्ष के शरीर हैं, अतएव व्यंग्य-व्यंजक भाव (रस व्यंग्य और शब्दार्थ व्यंजक) से गुणों का शब्दार्थ पर रहने का व्यवहार औपचारिक है। कुछ ऐसे वर्ण हैं जो पदों में गुपे जाकर मधुर भाव की सृष्टि करते हैं। ये हो वर्ण-समूह इन तीनों रखों के शरीर
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