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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१२

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चौथी छाया प्रोज ओज वह गुण है जिससे चित्त में स्फूर्ति आ जाय, मन में तेज उत्पन्न हो जाय। ओजोगुण से युक्त रस के श्रास्वादन से चित्त दीप्त हो उठता है। उसमें आवेग उत्पन्न हो जाता है । ओजोगुण का क्रमशः वीर से वीभत्स में और वीभत्स से रौद्र में प्राधिक्य रहता है। जहां द्वित्व वर्गों, संयुक्त वौँ र के संयोग और ट ठ ड ढ की अधिकता हो, समासाधिक्य हो और कठोर वर्गों की रचना हो वहां ओजोगुण होता है। (क) बजा लोहे के दन्त कठोर नचाती हिंसा जिह्वा लोल, भृकुटि के कुण्डल वक्र मरोर फुहुँकता अन्ध रोष फन खोल! बहा नर-शोणित मूसलधार मुण्ड-मुण्डों का कर बौछार प्रलय धन सा घिर भीमाकार गरजता है दिगंत-संहार छेड़ स्वर शस्त्रों की झनकार महाभारत गाता संसार ।-पंत (ख) मरकट युद्ध विरुद्ध क्रुद्ध अरि ठट्ट वपट्टहि । अब्द शब्द करि गजि तजि झुकि झपि झपट्टहिं । नियमानुसार इनमें संयुक्त वर्णों को तथा टवर्ग की अधिकता है । यह आवश्यक नहीं कि उपयुक्त नियमानुसार जो रचना होगी उसमें ही प्रोज-गुण होगा। (क) घर कर चरण विजित शृङ्गों पर झंडा वहीं उड़ाते हैं। अपनी ही उंगली पर जो खंजर की जंग छड़ाते हैं। पड़ी समय से होड़ छोड़ मत तलवों से कांटे रुक कर फक-फूक चलती न जवानी चोटों से बच कर झुक कर नींद कहाँ उनकी आँखों में जो धुन के मतवाले हैं, गति की तृषा और बढ़ती पड़ते पद में जब छाले हैं, जागरूक की जय निश्चित है हार चुके सोनेवाले, लेना अनल किरीट माल पर जो आशिक होनेवाले। दिन (ख) चकित चकत्ता चौंकि चौकि उठे बार बार दिल्ली बहसति चितै चाहक रखति हैं, बिलखि बदन बिलखत बिजपुरपति फिरत फिरंगिनी की नारी फरकति है।