पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४१३

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प्रसाद गुण थर थर काँपति कुतुबसाह गोलकुण्डा हहरि हबस भूप-भीर भरकति है, राजा शिवराज के नगारन की धाक सुनि केते बादशाहन की छाती धरकति है।-भूषण इन पद्यों को पढ़ने-सुनने से भी चित्त दीप्त हो उठता है और उसमें श्रावेग उमड़ आता है। पाँचवीं छाया प्रसाद गुण सूखे इन्धन में आग जैसे दप से जल उठती है वैसे ही जो गुण चित्त में शीघ्र व्याप्त हो जाता है अर्थात् रचना का बोध करा देता है वह प्रसाद गुण है। यह सभी रसों और रचनाओं में व्याप्त रह सकता है। श्रवण-मात्र से अर्थ- प्रतीति करानेवाले सरल और सुबोध शब्द प्रसाद-गुण के व्यंजक हैं। (क) विकसते मुरझाने को फूल उदय होता छिपने को चंद, शून्य होने को भरते मेघ, दीप जलता होने को मंद यहाँ किसका अनन्त, यौवन, अरे अस्थिर यौवन ।-महादेवी (ख) वह माता दो टूक कलेजे के करता, पछताता पद पर माता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को-भूख मिटाने को, मुंहफटी पुरानी झोली को फैलाता, दो टूक कलेजे के करता, पछताता पथ पर आता।-निराला (ग) सिखा दो ना हे मधुप कुमारि मुझे भी अपना मीठा गान। ___ कुसुम के चुने कटोरों से करा दो ना कुछ-कुछ मधुपान ।-पंत इसको सरल सुबोध रचना प्रसाद गुण-व्यंजक है । पंडितराज ने शब्द के १ श्लेष, २ प्रसाद, ३ समता ( एक-सी समग्र रचना होना), ४ माधुर्य, ५ सुकुमारता, ६ अर्थव्यक्ति, ७ उदारता (कठिन अक्षरों की रचना), ८ ओज, ६ कांति (अलौकिक शोभावाली उज्ज्वलता) और १० समाधि