पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२१

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काव्य में अलंकारों की स्थिति .३ का यह आशय व्यापक रूप से माना गया है, न कि वक्रोक्ति एक अलंकार है, जैसा कि आजकल प्रचलित है। अतिशयोक्तिपूर्ण और वक्रोक्तिपूर्ण वर्णन का काव्य में अधिक महत्त्व है। एक उदाहरण देखें- अंगारे पश्चिमी गगन के झवा झवा कर लाल हुए, निर्झर खो सोने का पानी पुनः रजत की धार हुए। रश्मिजाल से खेल-खेलकर आँखमिचौनी तरु-छाया, सोने चली गयी, दिग्पति संग विलग नहीं रहना भाया ॥-भक्त सूर्यास्त का यह वर्णन वक्रोक्ति-पूर्ण है । किरणो को अंगार, निझर के पानी को सोने का पानी, रजत की धार, किरणों के साथ छाया की आँखमिचौनी खेलने को अतिशयोक्ति भी कह सकते हैं । हिन्दी के प्राचार्यों ने प्रायः अलंकार का वही लक्षण किया है जो संस्कृत के प्राचार्यों का है। बहुतों ने लक्षण किया हो नहीं। पद्माकर का लक्षण निराले ढंग का है। शब्दहुँ तें कहुँ अर्थ तें कहुँ दुहुँ तें उर आनि । . अभिप्राय जिहि भांति जहँ अलंकार सो मानि। प्राचार्य शुक्लजी का लक्षण है-"वस्तु या व्यापार को भावना चटकोली करने और भाव को अधिक उत्कर्ष पर पहुंचाने के लिए कभी किसी वस्तु का आकार या गुण बहुत बढ़ाकर दिखाना पड़ता है। कभी उसके रूप-रंग या गुण की भावना को उस प्रकार के और रूप-रंग मिलाकर तीव्र करने के लिए समान रूप और धवाली और-और वस्तुओं को सामने लाकर रखना पड़ता है। कभी-कभी बात को घुमा-फिराकर भी कहना पड़ता है। इस तरह से भिन्न-भिन्न विधान और कथन के ढंग अलंकार कहलाते हैं।" दूसरी छाया काव्य में अलंकारों की स्थिति अलंकार की स्थिति के सम्बन्ध में ध्वनिकार ने लिखा है कि अंगाश्रित अर्थात् अङ्गरूप से वर्तमान अलंकारों को कटक श्रादि मानवीय अलंकारों की भांति समझना चाहिये । इसी बात को कविराज विश्वनाथ भी दुहराते हैं-कटक, कुण्डल को भांति अलकार रस के उत्कर्ष-विधायक माने जाते है। कवि जयदेव इसी को + अंगाश्रितास्त्यलंकाराः मन्तव्याः कटकादि यत् | ध्वन्यालोक २ रसादीनूपकुर्वन्तोऽलङ्कारास्तेऽङ्गदादिवत् । साहित्यदर्पण