पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३३८ काव्यदर्पण ___प्राचार्यों ने कई प्रकार के अलंकारों के लक्षण किये हैं जो तर्क-वितर्क से शून्य नहीं कहे जा सकते। ध्वनिकार ने लिखा है कि वाग्विकल्प-कहने के निराले ढंग अनंत हैं और उनके प्रकार हो अलंकार' हैं। रुद्रट ने भी यही कहा है-अभिधान के-कथन के प्रकार-विशेष अर्थात् कवि-प्रतिभा से प्रादुर्भूत कथन-विशेष हो अलंकार हैं। इनसे कुन्तक का यह कथन हो पुष्ट होता है कि विदग्धों के कहने का ढंग हो वक्रोक्ति है और वही अलंकार 3 है। प्राचार्य वामन कहते हैं कि अलंकार के कारण ही काव्य ग्राह्य-उपादेय है और वह अलंकार सौन्दर्य है। प्राचार्य दण्डी ने काव्य के शोभाकारक धर्मों को अलंकार कहा है। शोभाधायक धर्म गुण भी हैं। इनको अलंकार मानना उचित नहीं। क्योंकि, गुण और अल कार, यद्यपि काव्योत्कर्ष-विधायक हैं, तथापि इनके धर्म भिन्न हैं। दण्डी के कथनानुमार 'गुण काव्य के प्राण हैं।' वामन के मत से गुण काव्य में काव्यत्व लानेवाला धर्म है और अलकार काव्य को उत्कृष्ट बनानेवाला धर्म । विश्वनाथ ने भी यही कहा है कि 'शब्द और अर्थ के जो शोभातिशायी अर्थात् सौन्दर्य की विभूति के बढ़ानेवाले धर्म है वे ही अलंकार हैं। गुणो से काव्य में काव्यत्व आता है और अलंकार से काव्य की श्रीवृद्धि होती है। वक्रोक्ति और अतिशयोक्ति को एक प्रकार से पर्याय मान लिया गया है। अलंकार मात्र में अनेक श्राचाय वक्रोक्ति वा अतिशयोक्ति को सत्ता मानते हैं। लोचनकार को भी यह मान्य' है। क्योंकि, काव्य में कुछ अनूठापन लाना सकल सहृदय-सम्मत है। अतिशयोक्ति का अर्थ है कि उक्ति का सामान्यातिरिक्त होना; और इसमें एक प्रकार से वक्रोक्ति आ ही जाती है। इससे दोनों का एक होना संगत है । वक्रोक्ति अनन्ता हि नाग्विकल्पाः तत्प्रकाराः एव चालंकाराः । ध्वन्यालोक २ अभिधानप्रकार विशेषा एव चालंकाराः। अलंकारसर्वस्व ३ उमावतावलंकार्यों तयः पुनरलंकृतिः।। वक्रोक्तिरेव बैदग्ध्यभगीभणितिरुच्यते । वक्रोक्तिजीवित ४ काव्यं ग्राह्यमलंकारात् सौन्दर्यमलंकारः। काव्यालंकारसत्र ५ काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते । काव्यादर्श ६ काव्यशोभायाः कतारो गुणः तदतिशयहेतवश्चालंकाराः।-का० लं० सूत्र ७ शब्दार्थयोरस्थिरा ये धर्माः शोभातिशायिनः । साहित्यदर्पण ८ एवं चातिशयोक्तिरिति वक्रोक्तिरिति पर्याय इति बोध्यम्-काव्यप्रकाश-टीका '. सर्वत्र एवं विधविषयेऽतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेनाऽवतिष्ठते । तविना प्रायेणलङ्कारत्यायोगात् । कान्यप्रकाश १०. अनयातिशयोक्त्या विचित्रतया भाव्यते । ध्वन्यालोक-लोचन