पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२५

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अलंकारों को सार्थकता पाते, भाव ही भाव देखते हैं, उनको 'सीता साथ रहती तो मैं भी ऐसा ही विहार करता ही न पहुँचकर करुण रस की स्मरणमूलक व्यञ्जना तक पहुँचना चाहिये । विरह है अथवा वरदान कल्पना में है कसकती वेदना अश्र में जीता-सिसकता गान है। शून्य आहों में सुरीले छन्द हैं..."?-पंत यह नयी सृष्टि के नये ढंग का उदाहरण है। इसका 'अथवा' संदेह पैदा करता है, जिससे 'सन्देह अलंकार' है। इसमें इस अलंकार के लिए कुछ बाहर से लाकर जोड़ा नहीं गया है। यहाँ कटक, कुण्डल का नहीं, शारीरिक सौन्दर्य का ही उदाहरण काम दे सकता है। यहाँ का भावुक वक्ता यह निश्चय नहीं कर पाता है कि जो मुझे प्राप्त है वह वरदान है या विरह । वह संदिग्ध है। वह उसे क्या कहे और क्या नही। वह वेदना का भी अनुमान करता है और गान का भी आनन्द लेता है। यहाँ के सन्देह अलंकार का रूप- की तुम तीन देव मह कोऊ, नर नारायण की तुम दोऊ । जैसा कि पृथक्-पृथक् रूप से निर्दिष्ट सन्देहालंकार-सा स्पष्ट नहीं, कुछ विलक्षण- सा है, तथापि आलंकारिकों की दृष्टि में सन्देह अलंकार ही है। यहाँ वस्तु या भाव को सम्पत्ति मानने से ही काव्य को सम्पत्ति लूटी नहीं जा सकती जब तक कि सन्देह को सुअवसर नहीं मिलता। यहाँ वाच्याथं के चमत्कार का क्या कहना! इसमें जो अलंकार की वास्तविकता है वह भुलाने लायक वहीं। यदि वाच्यार्थ के चमत्कार के लिए, सौन्दयाँतिरेक के लिए बाहर से सामग्रो लाने में हो अलंकार का अस्तित्व माना जाय तो उन पचासों अलकारों का नामो- निशान मिट जाय जो वाच्यार्थ के साथ मिले हुए हैं। अतः, वाच्यार्थ के चमत्कार- प्रकार को ही अलंकार मानना आपाततः उचित प्रतीत होता है । चौथी छाया अलंकारों की सार्थकता अलंकार का उपयोग सौन्दर्य बढ़ाने के लिए होता है। यह सौन्दर्य भावों का हो या उनको अभिव्यक्ति का। भावों को सजाना, उन्हें रमणीयता प्रदान करना अलंकारों का एक काम है और उनका दूसरा काम भावों को अभिव्यक्ति को प्राञ्जल करना वा इसे प्रभावशाली बनाना। अतः, रस, भाव आदि के तात्पर्य का प्राश्रय