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पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४२६

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३४ काम्यदर्पण ग्रहण करके ही अलंकारों का संनिवेश करना आवश्यक है। ऐसी दशा में ही वे अपनी सार्थकता सिद्ध कर सकते हैं। ग्राम-गीत की दो पंक्तियां हैं- लोहवा जर जैसे लोहरा दुकनिया रे ना। मोरी बहिनी जरै ससुररिया रे ना ॥ जब लाडिली बहन से भेट करने बहन का सर्वस्व भैया उसके ससुराल गया और बहन ने इन पंक्तियों में- कपड़ा त देख भैया मोर पहिरनवा रे ना। भैया जैसे सावन के बदरिया रे ना॥ -अपने दुखड़े रोये तो भाई ने घर आकर जो दुखद संवाद सुनाया वहीं ऊपर की दो पंक्तियों में फूट पड़ा है। ससुरार में बहन दुख भोगती नहीं, कष्ट झेलती नहीं, जलती है। उसका जलन साधारण जलन नहीं। वह जलन भाथी की ड्क पर फूंक पड़ने से भभकती-धधकती आग की जलन है। सास को सासत, ननद के व्यंग्यबाण, प्रति को करता और रात-दिन के कड़ाचूर कामों में अपने को तिल- तिलकर मर मिटनेवाली बहन का यह जलना नहीं तो क्या है। उसमें भी बेचारी लाइ-प्यार से पली बहन तो लोहे का स्थान ग्रहण करने में सर्वथा असमर्थ है । ____यहाँ भाई के साधारण कथन-ससुराल में बहन जल रही है में जलना को लाक्षणिकता कुछ तीव्रता ला देती है तथापि लोहे के जलने को उपमा ने उस दुःखानुभूति को इतना बढ़ा दिया है कि वह सीमा पार कर गयी है। यहाँ अलंकार ने वक्तव्य विषय को अत्यन्त प्राञ्जज्ञ, प्रभावपूर्ण और मर्मस्पर्शी बना दिया है कि हृदय पर सीधे चोट करता है। नीचे की दो पंक्तियों में भी वही अलंकार है पर उतना प्रभावशाली नहीं है। रस-सिद्ध कवियों को अलंकार के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता । निरूप्यमाण की कठिनाइयां झेलने पर भी प्रतिभाशाली कवियों के समक्ष अलंकार प्रथम स्थान ग्रहण करने को आपा-आपो से 'हम पहले, हम पहले' कहते हुए-से टूटे पड़ते हैं । इस कथन का अभिप्राय यही है कि स्वभावतः जो अलंकार प्रतिभात हों, स्वतः स्फूर्त हो, उन्हीं का निवेश करना चाहिये। कवि जब रससिद्ध होगा तो रस-भाव का तात्पर्य ग्रहण करेगा ही। बन कवि के भाव उच्छ्वसित हो स्थामादितात्पर्यमाश्रित्य विनिवेशनम् । अलवतीनो सासामवंकाररक्साधनम् ॥ ध्वन्यालोक ३ अलंकारान्तराणि विनिरूप्यम्याणदुर्धयन्यपि इसमवाहितचेतसः प्रतिभानवतः, कवे: . प्रहपूर्विकया परापतन्ति । ध्वन्यालोक