अलंकारों की सार्थकता उठते हैं तब नाना भांति से कवि को रचना में ग्रालंकार फूट पड़ते हैं। अलंकारों के भेद इसी भावाभिव्यक्ति पर निर्भर करते हैं। इस दशा में कहीं-कहीं कवि रस-भाव से हटता-सा प्रतीत होता है और पाठकों के मन में उद्वेग-सा प्रगट कर देता है। जब 'छाया' को अप्रस्तुत-योजनाएँ पढ़ने लगते हैं तब मन को कुछ ऐसी ही दशा हो जाती है । आठ पद्यो में 'कुणाल' की तिष्यरहिता के वर्णन की ये कुछ पंक्तियाँ हैं- रामारुण-रंजित ऊषा-ती मृदु मधुर मिलन की संध्या सी, माधकी, मालती शेफाली बेला सी रजनीगंधा सी' कुन्दन सी कंचन चंपक सी विद्युत की नूतन रेखा सी, श्रावण घन के नीलांचल के तट के विशुभ्र अवलेखा सी। इसकी आलोचना अनावश्यक है। इसमें भावों का उच्च वास उतना नहीं है, जितना कि दूसरों की-सी रचना करने की लगन । अलंकार भाव-भाषा के भूषण हैं। यदि ये घुल-मिलकर भाषा को मधुर और भंकृत न बना सके, तथा यदि भावों में सजीवता और प्रभविष्ता नहीं ला सके जो ऐसे अलंकार प्रयास-साध्य ही समझे जा सकते हैं, उनसे रचना को कोई लाभ नही हो सकता। साथ ही यह भी जानना चाहिये कि जहाँ अलंकरणीय रस-भाव का हो अभाव हो वहाँ अलंकार क्या कर सकता है। निष्प्राण शरीर को-मुर्दे को अलंकार पहना दिये जाय-केवल बाह्य अलंकारों का ही कथन है, काव्य के अलंकार ऐसे नहीं होते तो अचेतन शवशरीर को क्या शोभा हो सकती है ! अलकार के लिए अलकार्य शरीर को सप्राणता आवश्यक है । रस-भावहीन रचना अचेतन शवस्वरूप है । उसके लिए अलंकार विडंबना है । एक उदाहरण से समझे- उन्नत कुच कुंभों कोले कर फिर भी युग-युग की प्यासी सी, आमरण चरण लुण्ठित होने वाली प्रेयसी सी दासी सी। 'वनी-ठनी तिष्यरक्षिता' 'खिल उठी आज रूपसी मनोरम ।' यहाँ उपमा की लड़ी सखे फूलों की माला-सी है। पहली पंक्ति में विरोध से कुछ जान-सी श्राती जान पड़ती है पर कुच कुम्भ सरस नहीं, उन्नत हो भर हैं। यदि तिष्यरदिता कुच-कुम्भों को लेकर युग-युग की प्यासी-सी है तो यहाँ उपमान का अभाव हो जाता है और यदि ऐसी कोई दूसरी है तो ऐसी अप्रस्तुत-योजना तिष्यरक्षिता के भाव की सहा- यिका नहीं , क्योंकि अशोक के रहते ऐसा नहीं कहा जा सकता। दूसरे चरण की १ तथाहि अचेतनं शवशरीरं कुण्डलायु पेतमपि न भाति, अलंकास्वाभावात् । ध्वन्यालोकलोचन
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