पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४६ अलंकार के रूप (धूम-रेखा =धुली स्मृति, धरा - हृदय का अंधकार) अभिप्राय यह कि मेरा हृदय मक्खन के समान स्निग्ध था, जिससे प्रिय का अनुराग दीपक-सा जल उठा। अब प्रिय के वियोग में हृदय अंधकारमय हो गया। अब केवल धुंधुली (पुरानी) स्मृतियाँ ही रह गयी हैं, जो उसी प्रकार बलखाती हुई उठ रही हैं; जैसे बुझे हुए दीपक की धूमरेखा बल खाती हुई उठती है। ____ यहाँ साम्य का आधार बहुत ही कम है। केवल प्रभाव-साम्य के नाममात्र का संकेत पाकर अप्रस्तुत की योजना कर दी गयी है। सुरीले ढीले अधरों बीच अधूरा उसका लचका गान । विकच बचपन को मन को खींच उचित बन जाता था उपमान ।-पत (इसमें कहा गया है कि उस बालिका का गान ही बाल्यावस्था और उसके भोले मन का उपमान बन जाता था। अर्थात्, वह गान स्वतः शैशव और उसका उमंग ही था। इसमें उपमान और उपमेय के बीच व्यंग्य-व्यक्षक-भाव का ही संबंध है; रूप-साम्य कुछ भी नहीं ।-(शुक्ल जी ) यह अप्रस्तुत-योजना के नये ढंग का उदाहरण है। यह शैशव का सरल हास है सहसा उर से है आ जाता। वह ज्या का नव विकास है जो रज को है रजत बनाता। वह लघु लहरों का विकास है कलानाथ जिसमें खिच आता।-पंत भावार्थ यह है कि जिस प्रकार उषा के विकास में-अरुणोदय-काल में रज- कण चमक उठते हैं; जिस प्रकार लघु लहरों में चांद लहराने लगता है उसी प्रकार बाल्यावस्था में बाल-हृदय को सारा संसार सुन्दर, सरल और उमंगभरा दिखाई इसमें बहुत ही अर्थगर्भित व्यञ्जक-साम्य है जो लक्षणा के प्रभाव से स्फुटित होता है। पंतजी को प्रस्तुतमोजना नवीन ही नही, रंगीन भी होती है और पूर्व हो नही, विचित्र भी। उनमें अलंकार को अस्फुट झांकी दीख पड़ती है । जैसे, रूप का राशि राशि वह रास ! दृगों की यमुना श्याम तुम्हारे स्वर का वेण विलास हृदय का वृन्वा धाम देवी! वह मथुरा का आमोद देव ! ब्रज भर यह विरह विवाद । आह ! वे दिन द्वापर की बाल ! भूति ! भारत को ज्ञात !!-पंत यह प्रभाव-साम्म महिमा का निदर्शन है ।