पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४३५

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अलंकारों का आडम्बर ३५३ पन्ती को श्रालंकारिक भाषा में अलंकार का यह रूप है- "अलंकार केवल वाणी की सजावट के लिए नहीं, वे भाव को अभिव्यक्ति के विशेष द्वार है। भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए, आवश्यक उपादान हैं; वे वाणी के प्राचार, व्यवहार और राजनीति हैं; पृथक् स्थितियोंके पृथक स्वरूप, भिन्न अवस्थाओं के भिन्न चित्र हैं। जैसे, वाणी की भंकार-विशेष घटना से टकराकर जैसे फेनाकार हो गयो हो; विशेष भावों के झोंके खाकर बाल लहरियां, तरुण तरंगों में फूट गयी हों; कल्पना के विशेष बहाव में पड़ी श्रावत्तों में नत्य करने लगी हो। वे वाणी के हास, अश्र, स्वप्न, पुलक, हाव-भाव हैं। जहाँ भाषा की जाली केवल अलंकारों के चौखटे में फिट करने के लिए बुनी जाती है वहाँ भावों को उदारता शब्दों की कृपण-जड़ता में बँधकर सेनापति की दाता और सूम की तरह 'इकसार' हो जाती है।'-पल्लव को भूमिका सातवीं छाया अलंकारों का आडम्बर प्रारम्भ के चार अलंकार भेदोपभेदों में विभक्त होकर आज लगभग डेढ़ सौ संख्या तक पहुंच चुके हैं; पर यहीं इनको इतिश्री नहीं होती। भले ही इनके विषय में सभी एकमत न हों, भले ही अनेक के लक्षणो और उदाहरणों में अनेक स्थानों पर भिन्नता पायी जाय । संख्यावृद्धि की इस होड़ा-होड़ी में अलंकारों का आग्रह इतना बढ़ा कि वे साधनस्वरूप होकर भी साध्य बन गये । रीतिकाल यही बतलाता है। अलंकार-वादियों ने अलंकार को इतना महत्त्व दिया कि उसे काव्य की प्रारमा बना डाला। अलकार ही को सर्वस्व समझ बैठे। यह ठीक है कि अलकारों की कोई संख्या निश्चित नहीं की जा सकतीः किन्तु संख्यावृद्धि का यह भी उद्देश्य न होना चाहिये कि अल कार का अलंकारख ही नष्ट हो जाय-वह अपने उद्देश्य से ही च्युत हो जाय। इसी कारण साधारण अलंकारियों की कौन कहे, प्राचार्यों के भी अनेक अलंकार पुस्तकों में ही पड़े रह गये । जैसे कि रुद्रट के जाति, भाव, अवसर, मत, पूर्व आदि अलंकार । निरर्थक अलंकारों के नमूने देखें। १. आठ प्रकार के 'प्रमाण' अलंकारों में एक संभव भी है। यह वहाँ होता है जहाँ किसी बात का होना संभव हो । जैसे, सुनी न देखी तुव सरसि हे वृषभानु कुमारि । जानत हौं कहुँ होयगी विपुला धरणि विचारि ॥ का० २०-२८