अलंकारों की अनन्तता और वर्गीकरण ३५५ दूसरे के गुण ग्रहण करने के कारण तद्गुण अलंकार माना गया है पर बाल को खाल निकालनेवाले कुवलयानन्दकार मोती के फिर श्वेत होने के कारण पूर्वरूप अलंकार मानते है। इस वर्णन में अतिशयोक्ति कुछ मात्रा में है पर भाव में तीव्रता कहाँ श्राती हैं १ एक तमाशा खड़ा किया गया है । इस तमाशे को अत द्गुण और अनुगुण भेद करके और खेलवाड़ बना दिया गया है। ___ऐसे अलंकारों पर ध्यान देने से यह कहना कुछ संगत-सा प्रतीत होता है कि अलंकार को सार्थकता पृथक् रूप से रहकर ही भाव को तीव्र बनाने में है। पर यह इसीसे मान्य नहीं हो सकता । पृथक् न रहकर भी अलंकार भावोत्तेजन में योग दे सकते है । एक उदाहरण ले- सुनहु श्याम व्रज में जगी दसम वसा की जोति । जंह मदरी अंगुरीन को कर में ढीली होति ॥ यहाँ अल्प अलंकार है । छोटे श्राधेय की अपेक्षा बड़े आधार का भी छोटा वर्णन किया गया है । इसमें अतिशयोक्ति है, चमत्कार है और उक्तिवैचित्र्य भी है। इससे विरह-दशा की प्रेषणीयता बढ़ जाती है। दूसरी बात यह कि पृथक् रूप से भावोत्तेजन का सिद्धान्त ग्रहण करने से अलंकार-शास्त्र पर हो हड़ताल फिर जायगो; किन्तु इससे अलंकारों का अनावश्यक विस्तार का भी समर्थन नहीं किया जा सकता। आठवीं छाया अलंकारों की अनन्तता और वर्गीकरण अलंकारों की कोई सीमा नहीं बांघी जा सकती और न कोई उसको संख्या हो निर्धारित की जा सकती । प्रतिभा ईश्वरीय देन है। उसके अनन्त प्रकार हैं', उसके स्फुरण की इयत्ता नहीं। इससे अलंकार भी अनन्त हैं। दण्डी ने लिखा है अलंकारों को आज भी सृष्टि हो रही है। अतः सम्पूर्णतः कौन उनकी गणना कर सकता है | अलंकार के लक्षण में ध्वनिकार के इस मत का उल्लेख किया गया है कि वाग्विकल्प-कथन के प्रकार अनन्त हैं और वे ही अलंकार हैं । इसको रुद्रट स्पष्ट करते हैं कि हृदयाह्लादक जितने अथं हैं वे सभी १ प्रतिभानन्त्यात् । लोचन २ अलकाराणाम् अनन्तत्त्वात् । ध्वन्यालोक ३ ते चाचापि दिकल्प्यन्ते करतान् कात्स्नेन वक्ष्यति । काव्यादर्श
पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४३७
दिखावट