पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४३८

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३५६ काव्यदर्पण अलंकार' हैं इससे अब निस्सन्देह कहा जा सकता है कि अलंकार काव्य सौंदर्य है। रुद्रट ने अर्थालंकारों को चार वर्गों में बांय है-वास्तव, औपम्य, अतिशय और श्लेष । अभिप्राय यह कि इन्हीं चारों भेदों के द्वारा अर्थ विभूषित होता है। इन्हींके भेद अन्य सभी अलकार हैं। ___ वस्तु के स्वरूप का कथन वास्तव है। इसमें व्यतिरेक, विषम, पर्याय आदि अलंकार आते हैं । जहाँ प्रस्तुत वस्तु को तुलना के लिए अप्रस्तुतयोजना होती है वहाँ औपम्य होता है । उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि अलंकार इसके अन्तर्गत हैं। जहाँ अर्थ और धर्म के नियमों का विपर्यय हो वहां अतिशय होता है। इसमें विषम, विरोध, असंगति, विभावना श्रादि अलंकार पाते हैं। जहाँ वाक्य अनेकार्थ हो वहाँ श्लेष होता है । इसमें व्याजोक्ति, विरोधाभास आदि अलंकार आते हैं। इसी प्रकार विद्यानाथ ने भी चार भेद किये हैं-१ वस्तु प्रतीतिवाले, २ औपम्ब प्रतीतिवाले, ३ रस-भाव प्रतीतिवाले और ४ अस्फुट प्रतीतिवाले । पहले में समासोक्ति, आक्षेप, आदि; दूसरे में रूपक, उत्प्रेक्षा आदि; तीसरे में रसवत्, प्रेय, ऊर्जास्वित् आदि और चौथे में उपमा, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकार आते है। राजानक रुय्यक ने अलंकारों को सात वर्गों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार हैं-१ सादृश्यगर्भ, २ विरोधगर्भ, ३ शृङ्खलाबद्ध, ४ तर्वन्यायमूल, ५ वाक्यन्याय- मूल, ६ लोकन्यायमूल और ७ गूढार्थप्रतीतिमूल । इनके भी अवान्तर भेद हैं, जिनके भीतर अन्य अलंकार आते हैं। एकावली में विद्याधर ने भी इन्हींका अनुकरण करके वर्गीकरण किया है। (१) सादृश्यगर्भ या औपम्यगर्भ में २८ अलंकार आते हैं। १ मेदाभेद-तुल्य- प्रधान ४ हैं-उपमा, उपमेयोपमा, अनन्य और स्मरण । २ अभेद-प्रधान ८ हैं- (क) आरोपमूल ६ हैं-रूपक, परिणाम, सन्देह, भ्रान्ति, उल्लेख और अपह्न ति (ख) अध्यवसायमूल २ हैं-उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति। ३ गम्यमान औपम्य १७ हैं-(क) पदाथगत २ हैं-तुल्ययोगिता और दीपक । (ख) वाक्याथगत ३ है- प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त और निदर्शना। (ग) भेदप्रधान २ हैं-व्यतिरेक और महोक्ति । (घ) विशेषण-वैचित्र्यवाले २ है-समासोक्ति और परिकर । (ङ) विशेषण-विशेष्य-वैचित्र्य का १ श्लेष है। शेष ६ विनोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, पर्यायोक्त, अर्थान्तरन्यास, व्याजस्तुति और आक्षेप हैं। तो यावन्तो हृदयावर्जका अर्थप्रकाराः तावन्तः अलंकाराः । काव्यालंकार २ अर्थत्यालंकाराः वास्तवमौपम्यतिशयः श्लेषः । . एषामेवविशेषाः भन्ये तु भवन्ति निःशेषाः । काव्यालंकार ,६३ केचित्प्रतीयमानवस्तवः केचित्प्रतोयमानौपम्याः PR केचित्प्रतीकमानरसभावादया, केचिदस्फुटप्रतीयमानाः । प्रवापरुद्रीय