काव्येदपण ___जो लोग स्मरण आदि को एक कल्पित भाव-साहचर्य शीर्षक के भीतर रखते हैं उनको इसपर और विचार करना चाहिए । जब हम 'चन्द्रमा को देखकर उसके मुख की याद आती है' कहते हैं तब सादृश्य ही हमारे सामने रहता है और इसकी गणना सादृश्य-मूलक अलंकारों में ही होती है। ऐसे ही बौद्धिक शृङ्खला को बात कहना भी बुद्धि को अजीणता है। अचार्यों का शृङ्खला-मूलक एक भेद तो है ही, जिसमें सार श्रादि अलंकारों की गणना होती है। ___स्मरण, भ्रम, संदेह, प्रहषण, विषाद, तिरस्कार आदि ऐसे कई अलंकार हैं, जिनका सम्बन्ध सोधे मन से है। यदि चमत्कार को ही अलंकार के प्राण मान लें और जहाँ चमत्कार अलकारों में उपलब्ध हो वहाँ मन का सम्बन्ध श्राप ही आप हो उठता है । क्योकि, चमत्कृत मन ही होता है । इस प्रकार प्रायः सभी अलकारों के साथ मनोविज्ञान का सम्बन्ध अपरिहाय हो जाता है। दसवीं छाया शब्दार्थोभयालङ्कार अलकार नियमतः शब्द में, अर्थ में और शब्द तथा अर्थ, दोनों में रहने के कारण शब्दगत, अर्थगत और उभयगत होते हैं। अलंकारों का शब्दगत और अर्थगत विभाग अन्वय और व्यतिरेक पर निर्भर है। जिसके रहने पर जो रहे वह अन्वय है। जैसे, जहां-जहां धुश्रा रहता है वहाँ- वहां आग भी रहता है। जिसके अभाव में जिसका अभाव हो वहाँ व्यतिरेक होता है। जैसे, जहां-जहाँ श्राग नहीं होती वहां-वहाँ धुश्रा भी नहीं होता। इसी प्रकार जो अलंकार जिस किसी विशेष शब्द के रहने पर हो रहे वह शब्दाल कार है और जिन शब्दों के द्वारा जो अलंकार सिद्ध होता है वह अलंकार शब्द-परिवर्तन से भी ज्यों का त्यों बना रहे, वह अर्थालंकार होता है । अतः, जिस अलंकार के साथ जिस शब्द या अर्थ का अन्वय या व्यतिरेक हो, वही उस अलंकार के नामकरण का कारण होगा। सारांश यह कि शब्द को चमत्कृत करनेवाले शब्दाश्रित अलंकार शब्दालकार और अर्थ को चमत्कृत करनेवाले अर्थाश्रित अलंकार अर्थालंकार कहे जाते हैं। १ इह दोषगुणालंकाराणां शब्दार्थमतत्वेन यो विभागः स अन्वयव्यतिरेकाभ्यामेव व्यवतिष्ठते । काव्यप्रकाश १ यत्सत्वे यत्सत्त्वमन्वयः यदभावे यदभावो व्यतिरेकः ।-मुक्तावली
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