पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४४३

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कौव्वदर्पण उभयालंकार का विषय ही नहीं। अन्य प्रकार के संकरालंकार की बात कही गयी है। फिर भी दोनजी ने शब्द और अर्थ, दोनों को एक साथ देखते हुए भी शब्द+शब्द और अर्थ+अर्थ को उभयालंकार कैसे मान लिया ! उभयालंकार होते हुए भी शब्दालकारों में पुनरुक्तवदाभास, यमक आदि को शब्दालंकार में क्यों दिया ? कारण यह है कि इनमें जिसकी प्रधानता होती है, जिसमें अधिक चमत्कार होता है उसके नाम से वह उक्त होता है । जैसे, शब्दार्थो- भयगत पुनरुक्तवदाभास और परंपरित रूपक। या दोनों उभयाल कार हैं; किन्तु शब्द-चमत्कार होने के कारण पहले को शब्दालंकारों और दूसरे को अर्यालकारों में रख दिया। ऐसी स्थिति में वस्तुस्थिति की उपेक्षा कर दी जाती है । यह परंपरापालन ही है, जैसा कि दर्पणकार कहते हैं-प्राचीनो ने एक शब्दार्थालंकार अर्थात् उभयालंकार पुनरुक्तवदाभास को भी शब्दालंकारों में गिना दिया है। अतः उसे ही पहले कहते है। १. शब्दालिकारस्यापि पुनश्क्तयदाभासस्य चिरन्तनैः • शब्दालंकारमध्ये लक्षितत्वात् प्रथम तमेवाह । - साहित्यदर्पण