पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४५

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भावना से है और उनसे भावनाओ को बल मिलता है ।" "विष्णुधर्मोत्तर मे कहा: गया है कि "काव्य के-से चित्र के भी नौ रस है। नृत्यकला में भी भावो की अभिव्यक्ति होती है। उनका आंगिक अभिनय यही बताता है। नृत्य के सम्बन्ध मे कहा गया है कि "वह रस, भाव, ताल, काव्यरस, गीत से युक्त होने से सुखद तथा धर्म-विवर्धक होता है।" __वास्तुकला वा शिल्पकला स्थूल कला है, पर यह नहीं कहा जा सकता कि इसमे भावनात्रो का अभाव होता है। रूपो मे जो अभिव्यक्ति होती है वह तो भावना ही है। सातो आश्चर्यजनक वस्तुओ का निर्माण जन-भावना के ही तो द्योतक है। इनका मर्म यही है कि सभी कलाओ का उद्देश्य भावनाओं का आविष्कार है और सभी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार रस प्रतीत कराते है। काव्यकला के प्रवाद वाक्य उन्नीसवीं शताब्दी के शेष भाग में रस्किन, मैथ्यू आर्नल्ड आदि ने साहित्य का जो सिद्धान्त स्थापित किया था उसके विरोध में अस्करवाइल्ड आदि कई साहित्यिक उठ खड़े हुए और उन्होंने 'आर्ट फॉर आर्ट 'स सेक' अर्थात् 'कना कला के लिए' यह सिद्धान्त उपस्थित किया। इसका अनुवाद 'रस में ही रस की सार्थकता' या 'रस सर्वस्वता नीति' से भी किया जाता है। इससे कुछ समय तक साहित्य में उच्छ, खलता बढ़ गयी ; क्योंकि ये यही कहते थे कि रस-सृष्टि के अतिरिक्त साहित्य का और कोई दूसरा उद्देश्य नहीं है। ये विशेषतः वास्तव-बोध तथा मानव-जीवन की नग्नता प्रकट करने के पक्षपाती थे। साहित्य-सृष्टि की दृष्टि से यह सिद्धान्त असफल रहा। कारण यह कि मनुष्य जीवन को सुन्दर बनाना चाहता है। अतः जीवन के आदर्श से उसे विच्युत करना उसका मूलोच्छेद ही करना है। दूसरी बात यह है कि जो काव्य पाठक के मन पर प्रभाव डालता है वह संस्कृत तथा उन्नत होता है । अतः पाठक के चित्त को भी शान्त शुद्ध उन्नत, संस्कृत तथा सानन्द बनाता है । तीसरी बात यह है कि साहित्य का उप- १ The colours are not simple sensations, they are an affective tone proper to themselves. , २ शृंगारहास्यकल्पतः रौद्रवीरभयानकाः! वीभत्सादमुतशान्ताख्याः नवरिवरसाः स्मृताः ।। ३ रसेन भावेन समन्विंतंचतालार्ग काव्यरसानगन। - " . गीतानगं वृत्तमशन्ति व सुखद वि गंधमात्तर भ