पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४६७

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३८६ कान्पदपण १ कज्जल के कूट पर दीपशिखा सोती है कि , श्याम धन-मण्डल में दामिनी की धारा है ? यामिनी के अंचल में कलाधर की कोर है कि , राहु के कबन्ध पै कराल केतु तारा है ? 'शंकर' कसौटी पर कंचन की लोक है कि , तेज ने तिमिर के हिये में तीर मारा है ? काली पाटियों के बीच मोहिनी की मांग है कि , ढाल पर खॉडा कामदेव का दुवारा है ? सुन्दरी के मांग के निर्णय में यहाँ सन्देह है। २ क्षण भर में देखी रमणी ने एक श्याम आमा बॉकी क्या शस्य-श्यामला भूतल ने दिखलाई निज नर-झाँकी ? किंवा उतर पड़ा अवनी पर कामरूप कोई घन था ? एक अपूर्व ज्योति थी जिसमें जीवन का गहरापन था। गुप्त राम के सम्बन्ध में शूर्पणखा का सन्देह है। ३ निद्रा के उस अलसित बन में वह क्या भावी की छाया । दृग पलकों में विचर रही या वन्य देवियों को माया ?-पंत पत के सन्देह का निराला हो ढग है। इसमें अनेक संकल्प-विकल्प के बाद भी सन्देह बना रहता है। इसमें सन्देह- वाचक शब्द नहीं है। ८ भ्रान्ति या भ्रम (Mistake or Error ) __ जहाँ भ्रम से किसी अन्य वस्तु को अन्य वस्तु मान लें वहाँ भ्रान्ति या भ्रम अलंकार होता है। १ अति सशंकित और समीत हो मन कभी यह था अनुमानता। ब्रज समूल विनाशन को खड़े यह निशाचर हैं नृप कंस के ।-हरिऔष २ कुसुम जानि शुक चोंच पर भ्रमर गिर्यो मँडराय । ___सोहू तेहि चाहत धरन जामुन फल ठहराय ।-अनुवाद ३ वृन्दावन विहरत फिर राधा नन्दकिशोर । नीरद यामिनि जानि सँग डौले बोल मोर ।-प्राचीन पहले में निशाचर का, दूसरे में कुसुम तथा जामुन-फन का और तीसरे में सघन, मेघ का भ्रम है।