३८८ काव्यदर्पण दुख अनल शिखाएं व्योम में फूटती हैं , यह किस दुखिया का है कलेजा जलाती। अहह-अहह देखो टूटता है न तारा पतन दिलजले के गात का हो रहा है।-हरिऔध यहाँ उपमेय तारा का निषेध करके गात के पतन रूप उपमान का आरोप किया गया है । यहाँ शब्दतः निषेध है । चिबुक देख फिर चरण चमने चला चित्त चिर चेरा। वे दो ओंठ न थे राधे था एक फटा उर तेरा।-गुप्त यहाँ भो शब्दतः श्रोठ का निषेध करके फटे उर का आरोप किया गया है। २ कैतवापह्न ति-वह है जिसमें उपमेय का प्रत्यक्ष निषेध न करके कैतव से अर्थात् मिस, व्याज, छल आदि शब्दों द्वारा निषेध किया जाय । इसको आर्थीः अपन ति भी कहते है। कहै रघुनाथ ब्रजनाथ की जनम जानि , फूलि केलि विटप गगन घन रहे झूमि । साथ ले सुरनि सुनासोर सो विमान भारे, कंतव सलिल बार कलपलता के फूल । इसमें जल का निषेध करके पुष्प का आरोप है। कैतव शब्द के बल से निषेध है, प्रत्यक्ष नहीं। श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन श्रोध से जलने लगे। सब शोक अपना भूलकर करतल युगल मलने लगे। मुख बाल रवि सम लाल होकर ज्वाल सा बोधित हुआ। प्रलयार्थ उनके मिस वहां क्या काल ही क्रोधित हुआ ?:-गुप्त यहाँ अजुन उपमेय का मिस शब्द के अर्थ-बल से निषेध करके काल का आरोप किया गया है। ३ हेत्वापह्न ति-वह है जिसमें कारण सहित उपमेय का निषेध करके उपमान का स्थापन होता है। पहले आँखों में थे मानस में कूद मग्न प्रिय अब थे। छींटे वहीं उड़े थे बड़े-बड़े अश्रु वे कब थे ?--गुप्त इसमें कारण के साथ अश्रु का निषेध रके छींय की स्थापना की गयी है । ४ भ्रांतापह्न ति-वह है जिसमें सत्य बात को प्रकट करके किसी को शंका को
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