पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७९

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-३६८ काव्यदपण कारकदीपक-अनेक क्रियाओं में एक हो कारक के योग को कारकदीपक अलंकार कहते हैं । हेम पुञ्ज हेमन्त काल के इस आतप पर वारू'. प्रिय स्पर्श का पुलकावलि मै कैसे आज विसारूं ? किन्तु शिशिर में ठंढी सांसे हाय कहाँ तक धारू ? तन जारू, मन मारूँ पर क्या मैं जीवन भी हारूं ?--गुप्त इसमें अनेक क्रियाओं का 'मैं' एक हो कर्त्ता है। देहलोदीपक-दो वाक्यों के बीच में जहाँ एक हो क्रिया आती है वहां देहलोदीपक अलंकार होता है । कहा राम ने अनुज करो तैयार चिता को, उस गति को हूँ इसे मिली जो नहीं पिता को। पिता मरण का शोक न सीता हर जाने का, लक्षमण हा! है शोक गृध्र के मर जाने का।-रा० च० उ० इसमें 'शोक न' यह वाक्य में दोनों ओर लगता है, जिनसे 'सोता हरने का

शोक न' यह अर्थ होता है।

विष से भरी वासना है यह सुधापूर्ण वह प्रीति नहीं। रीति नहीं अनरीति, और यह अनीति है नीति नहीं। गुप्त इसमें है। क्रिया रीति नहीं (है) अनरीति (है) श्रार नोति नहो (है) के साथ भी लगती है। सोहत भूपति दान सों फल-फलन आराम । मालादीपक-पूर्वोक्त वस्तुओं से उपयुक्त वस्तुओं का एक धर्म से सम्बन्ध -कहने को मालादीपक अलंकार कहते हैं । घन में सुन्दर बिजली सी बिजली में चपल चमक सी, आँखों में काली पुतली सी पुतली में श्याम झलक सी। प्रतिमा में सजीवता सी बस गयी सुछवि लाखों में, थी एक लकीर हृदय में जो अलग रही आँखों में।-प्रसाद यहाँ पूर्व कथित घन में उत्तर कथित बिजली का, फिर पूर्वोक्त बिजली का उत्तर कथित चमक का और ऐसे ही आँखो में पुतली का फिर पुनली में श्यामता का 'बस गई सुछवि आँखों में इस एक क्रियारूप धर्म से सम्बन्ध स्थापित किया गया है।