पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/४७८

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दीपक ३६७ २ हित-अनहित में तुल्य वृत्ति के वर्णन करने को दूसरी तुल्ययोगिता कहते हैं- राम-भाव अभिषेक समय जसा रहा, वन जाते भी सहज सौम्य वैसा रहा। वर्षा हो वा ग्रीष्म सिन्धु रहता वही, ___ मर्यादा की सदा साक्षिणी है मही।-गुप्त इसमें 'राज्याभिषेक' और 'वनबास' जैसे हिताहित में राम के मुख का भाव एक-सा बना रहा। ३ उपमेय को उत्कृष्ट गुणवालों के साथ गणना करने को तीसरी तुल्ययोगिता कहते हैं। शिवि दधीचि के सम सुयश इसी भूर्ज तरु ने किया, जड़ भी होकर के अहो त्वचा-दान इसने दिया ।-रा० च० उ०. यहां उपमेय भूर्ज-तरु को शिवि-दधिची-जैसे उत्कृष्ट गुणवालों के समान बताकर वर्णन किया है। १४ दीपक ( Illuminator ) प्रस्तुत और अप्रस्तुत के एक धर्म कहने को दीपक अलंकार कहते हैं। थाह न पैहै गंभीर बड़ो है सदा ही रहे परिपूरन पानी। एक विलोकि के 'श्री युत् दास ज' होत उमा हिल मै अनुमानी। आदि वही मरजाद लिये रहै है जिनकी महिमा जग जानी। काहू के केहू घटाये घट नहिं सागर औ गुन आगर प्रानी। इसमें 'सागर' और 'गुन ागर प्राणो' प्रस्तुत-अप्रस्तुतो का 'घटाये घटै नहि आदि एक ही धर्म कहा गया है । श्लेष से दोनों के गुण और कार्य एक समान रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून । पानी गये न ऊबरे मुक्ता मानिक चून । इसमें चूना प्रस्तुत और मुक्ता, मानिक अप्रस्तुत के 'न ऊबरे' एक हो धर्म उक्त हैं। नृप मद सो गज दान सो शोमा लहत विशेष । 'शोभा लहत' दोनों का एक धर्म कहा गया है। टिप्पणी-तुल्ययोगिता में केवल उपमेयों वा उपमान का एक धर्म कहा जाता है और दीपक में दोनों का एक धर्म उक्त होता है। किन्तु चमत्कार न होने के कारण इसको तुल्ययोगिता का हो एक भेद मानना उचित प्रतीत होता है।