पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/५०

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३७ सकता है, जिसके होने की संभावना है। इसी कारण दृश्य-जगत् से भाव-जगत् का महत्त्व बढ़ जाता है। प्राच्य साहित्य की अपेक्षा पाश्चात्य साहित्य में कल्पना-शक्ति के विविध व्यापारों का सूक्ष्म निरीक्षणपूर्वक विचार किया गया है। काव्य और वक्रोक्ति वक्रोक्ति को सिद्धांत रूप में स्वीकार करनेवाले वक्रोक्ति जीवितकार कुन्तक ही हैं। वक्रोक्ति से उनका अभिप्राय भणिति-भंगी' अर्थात् कहने के विशेष वा निराले ढंग से है। वक्तब्ध विषय का साधारण रूप से वर्णन न करके कुछ ऐसो विदग्धता के साथ वर्णन करे कि उसमें कुछ विच्छित्ति वा विचित्रता आ जाय। ____ अभिप्राय यह कि शब्द और अर्थ के संयोग से ही साहित्य-सृष्टि होती है । वे शब्द और अर्थ तभी काव्यत्व लाभ कर सकते हैं जब उनमें वक्रोक्ति हो । कुन्तक का कहना है कि "सहित अर्थात् मिलित शब्द और अर्थ काव्य-मर्मज्ञों के श्राह्लाद- जनक और वक्रतामय काव्य-व्यापार से पूर्ण रचना-बन्ध में विन्यस्त हो, तभी काव्य हो सकता है।"२ अभिप्राय यह कि सहृदयहृदयाह्लादकारी अथ और विवक्षितार्थक वाचक शब्द की जो विशिष्टता है वही वक्रोक्ति है । कुन्तक के मत से यही 'वक्रोक्ति कविता का प्राण है।'3 सारांश यह कि काव्य के शब्द और अर्थ के साहित्य में अर्थात् एक साथ मिलकर भाव प्रकाश करने के सामञ्जस्य में ही काव्यत्व है । कुन्तक के मत से वक्रोक्ति ही कविता कहलाने के योग्य है। किन्तु वक्रोक्ति में चमत्कार के कारण वे सरसता के भी समर्थक हो जाते है ।"४ भामह के वक्राभिधेयशब्बोक्ति के सिद्धान्त को कुन्तक ने परिष्कृत रूप दिया है । आजकल का अभिव्ययंजनावाद प्रायः वक्रोक्ति से मिलता-जुलता है। समता के साथ विषमता भी कम नहीं है । कुन्तक वक्रोक्ति के नाम से एक पृथक् काव्य-सम्प्रदाय स्थापित करने में समर्थ हुए थे। काव्य और अनुकरण बहुतों का विचार है कि काव्यरचना का मूल मनुष्यों को अनुकरण-वृत्ति है। इस वृत्ति का यह स्वभाव है कि वह अज्ञातावस्था में ही मानव-हृदय पर अपना १. वक्रोक्तिरेव वैदग्य भङ्गी भणितिरुच्यत्वे । वक्रोक्तिजीवित २. शब्दार्थों सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि । बन्धे मस्थितौ काव्यं तद्विदालादकारिणि ।। -4० जी० ३. वक्रोक्तिः काव्यजीवितम् ।-4० जी० ४. सर्वसम्पत्परिस्पन्दि सम्पाद्य सरसात्मनाम् |