है। सुधार मुद्र काव्य हो हो सकता है। अतः, साहित्य शन्द से काव्य का हो बोध होता है। शब्द और अथं का सम्मेलन ही साहित्य है। प्राचीन काल से हो पण्डितों ने शब्द और अर्थ के इस गहन सन्बन्ध को ओर ध्यान दिया था। कालिदास ने इमो विचार से “वचन और अर्थ का तात्पर्य समझने के लिए शब्द और अर्थ के समान मिले हुए पार्वती-परमेश्वर की वंदना की थी।" 'अर्धनारीश्वर महादेव का सम्बन्ध जैसा नित्य है वैसा ही शब्द और अर्थ का भी सम्बन्ध नित्य है। कार्लाइल का भी कहना है कि "क्योंकि देह और श्रात्मा, शब्द और अर्थ यहाँ, वहाँ सब जगह, आश्चर्य रूप से सहगामी हैं ।"२ कुन्तक साहित्य के इस सम्मिलित शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं कि "शब्द और अर्थ का जो शोभाशाली सम्मेलन होता है वही साहित्य है । शब्द और अर्थ का यह सम्मेलन वा विचित्र विन्यास तभी सम्भव है जब कि कवि अपनी प्रतिभा से जहां जो शब्द उपयुक्त हो, न अधिक और न कम, वही रखकर अपनी रचना को रुचिकर बनाता है ।१३ पेटर भी कहते हैं कि "अम्ले लेखक अर्थ के साथ शब्द के सुसम्बद्ध होने की प्रत्येक प्रक्रिया में अच्छे लेख की नियमावली, मन को तद्र प एकता तथा सरूपता के प्रति लक्ष्य रखते हैं." 'शब्दार्थों सहितौ "इसकी व्याख्या में कुन्तक कहते है कि "एक शन्द के साथ अन्य शब्द का और एक अर्थ के साथ अन्य अर्थ का साहित्य परस्पर स्पद्धिता का हो बोध होता है। अन्यथा काव्यमर्मज्ञों की श्राह्लादकारिता की हानि होने की सम्भावना है ।"५ कहा है कि “जहाँ शब्द और अर्थ सब गुणों में समान हो, वहाँ १. वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये । जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ।।-रघुवंश २. For body and soul word and idea go stronly together here and everywhere The Hero as Poet. ३. साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्री काऽप्यसो अन्यूनानतिरिक्तत्वंमनोहारिण्यवस्थितिः । ५० जी. ४. All laws of good writing at similar unity or identity of the mind in all the process by which the words associated to the import............Style. ५. सहितौ इत्यत्रापि शब्दस्य शम्दान्तरेण याच्यस्य वाध्यान्तरेण साहित्य परस्परस्पद्धित्वलक्षणमेव विवक्षितम् । अन्यथा तदिदाडादकारित्व पनि श्रसज्येत । ०जी०
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