पृष्ठ:काव्य दर्पण.djvu/७०

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पृथक उल्लेख किया है । शरीर-शास्त्र-वेत्ताओं की दृष्टि में हृदय का कुछ दूसरा ही रूप है । साहित्यकारों की दृष्टि में हृदय हमारी सत्ता का वह अंश है, जिसका हम चंचलता की अवस्था में अपने भीतर सदा अनुभव करते रहते हैं। कभी वह हर्ष से तो कभी क्रोध से, कभी शोक से तो कभी भय से चंचल हो उठता है । यदि इस प्रकार का कोई प्रभाव हमपर नहीं पड़ता तो भी हृदय निश्चल वा निस्तरग नहीं रहता ; क्योंकि चंचलता ही उसका मूल धर्म है । हृदय के इसी मूल धर्म को भाव कहते है। ____ गौतम का कहना है कि 'जब तक यह पार्थिव शरीर श्रात्म संयुक्त रहेगा तब तक पूर्वजन्म की वासना या संस्कार ( impression ) या प्रवृत्तियां नित्य रूप से उसके साथ विद्यमान रहेंगी।'२ नवजात शिशु को अपरिचित विकृत आकार वेष को देखकर भयभीत होने का कारण पूर्वजन्मार्जित भयात्मक वासना ( instinct of fear ) ही है । ऐसी प्रवृत्तियाँ सहजात ( congenital ) होती हैं । क्रम- विवर्तनवादी वैज्ञानिक भी इस बात को मानने लगे हैं । ये वासनायें ही मानव-मन में भाव का आकार धारण करती है । ___भाव के अनेक अर्थ हैं ; पर साहित्य में मुख्यता रति, शोक, मोह, आलस्य श्रादि स्थायी और संचारी भावों की ही है। अगरेजी में इसके लिए इमोशन (emotion ) का हो व्यवहार है; किन्तु मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि भाव या इमोशन शुद्ध सुख-दुःखानुभूति नहीं, बल्कि सर्वावयव मानसिक अवस्था (Complete psychosis) है। अभिप्राय यह कि विचार-मिश्रित सुख- दुःखानुभूति भाव है। यह भाब ज्ञानात्मक होता है। जैसे, ज्ञानमात्र में भाव की सत्ता विद्यमान रहती है वैसे भावमात्र में ज्ञान की सत्ता भी रहती है। 3 रिचास भी कहते हैं कि 'जो हों, हमारे विचार से रस और भाव की एक ज्ञानात्मक धृत्ति भी है। शुक्लजी का कह भाव-लत्तण-"भाव का अभिप्राय साहित्य में तात्पर्य बोध- मात्र नहीं है, बल्कि वह वेगयुक्त और जटिल-श्रवस्थाविशेष है, जिसमें शरीरवृत्ति और मनोवृत्ति दोनों का योग रहता है। क्रोध को ही लीजिये । उसके स्वरूप के अन्तर्गत अपनी हानि वा अपमान की बात का तात्पर्य बोध, उग्रवचन और कर्म की १. भावशब्देन चित्तवृत्ति-विशेषा एव विवक्षिताः । अ० गुप्त २. वीतरागजन्मादर्शनात् । न्यायसूत्र ३. नट तच्चित्तवृत्तिवासनाशून्यः प्राणी भवति । ४. Pleasure, however, and emotion have, on our view, also a cognitive aspect. Principles of Literary Criticism,