काव्यदपण यद्यपि इस दृष्टि से देखने पर विश्वसाहित्य अभिन्न-सा प्रतीत होता है तथापि प्रत्येक साहित्य में दैशिक, काजिक और मानसिक आधार के भेद से अपनी एक विशिष्टता दीख पड़ती है; एक स्वतन्त्र सत्ता झनको है, जो एक साहित्य को दूसरे साहित्य से भिन्न करने में समर्थ होती है। कवीन्द्र रवीन्द्र का कथन है- "साहित्य शब्द से साहित्य में मिलने का एक भाव देखा जाता है । वह केवल भाव-भाव का, भाषा-भाषा का, ग्रन्थ-ग्रन्थ का ही मिनन नहीं है, बल्कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का अत्यन्त अन्तरङ्ग मिलन भी है, जो साहित्य के अतिरिक्त अन्य से संभव नहीं है। प्रधानतः दो अर्थों में साहित्य शब्द का प्रयोग होता है। एक तो विविध विषयों के ग्रन्थसमूह लिटरेचर ( Literature ) के अर्थ में और दूसरे काव्य के अर्थ में । जहाँ केवल साहित्य शब्द का प्रयोग होता है वहाँ मुख्यतः काव्य का ही बोध होता है। ऐसे तो साहित्य शब्द का प्रयोग विज्ञाप्य वस्तु के विज्ञापन की वाङ्मय सामग्री के अर्थ में होने लगा है। ___ जब हम इस सरस उक्ति को उपस्थित करते हैं कि 'शब्द और अर्थ का जो अनिर्वचनीय शोभाशाली सम्मेलन होता है वही साहित्य है और शब्दार्थ का यह सम्मेलन या विचित्र विन्यास तभी संभव हो सकता है जब कि कवि अपनी प्रतिभा से जहाँ जो शब्द उपयुक्त हो वहों रखकर अपनी रचना को रुचिकर बनाता है।" तब हमको कला में अकुशल, शैली से अनभिज्ञ और अभिव्यञ्जना से विमुख नहीं कहा जा सकता और न हम केवल उपदेशक ही समझे जा सकते हैं। शुक्लजी के शब्दो में इतना भी तो कहा जा सकता है- "साहित्य के शास्त्र-पक्ष को प्रतिष्ठा काव्यचर्चा को सुगमता के लिए माननी चाहिये, रचना के प्रतिबन्ध के लिए नहीं।" महाकवि मंखक ने कितना सुन्दर कहा है-"पाण्डित्य के रहस्यों-ज्ञातव्य प्रच्छन्न विषयों की बारीको बिना जाने सुने जो काव्य करने का अभिमान करते हैं वे सर्पविषनाशक मन्त्रों को न जानकर हलाहल विष चखना चाहते हैं।२ इससे साहित्य के स्रष्टानो, विशेषतः काव्यानर्माताओं को साहित्य-ग्रास्त्र के रहस्यों को जान लेना श्रावश्यक है । १. साहित्यमनयोः शोभाशालितां प्रति काप्यपौ । अन्नानतिरिक्तत्वम् मनोहारिण्यवस्थितिः।-कुन्तक २. अशातपाण्डित्यरहस्यमुदा ये काव्यमार्गों दधतेऽभिमानम् । ते गारडीयाननधीत्य मन्त्रान् हालाहलास्वादनमारमन्ते । -श्रीकण्ठचरित