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काव्य में रहस्यवाद


योरपवालों के प्रकृति-निरीक्षण का विस्तार बहुत बड़ा था। इससे वहाँ जब रहस्यवाद गया तब वहाँ की विस्तृत काव्यदृष्टि के अनु- सार उसमें मूर्त्त विधान अधिक वैचित्र्यपूर्ण हुआ। ब्लेक को रूपात्मक बाह्य जगत और मनुष्य की कल्पना के प्रत्यक्ष सम्बन्ध के विपर्य्यय का, सिद्धान्त-रूप मे, बड़े ज़ोर शोर से प्रतिपादन करना पड़ा। भक्ति-काव्य में रहस्यवाद की उत्पत्ति के धार्मिक और सामाजिक कारण पर जो विचार करेगा उसे यह लक्षित हो जायगा कि यह सब द्राविड़ी प्राणायाम मज़हबी तहज़ीब, धार्मिक शिष्टता (Religious courtesy) के अनुरोध से करना पड़ा।

भारतीय भक्तिकाव्य को 'रहस्यवाद' का आधार लेकर नहीं चलना पड़ा। यहाँ के भक्त अपने हृदय से उठे हुए सच्चे भाव भगवान् की प्रत्यक्ष विभूति को बिना किसी संकोच और भय के -- बिना प्रतिबिंब-वाद आदि वेदान्ती वादों का सहारा लिए -- सीधे अर्पित करते रहे। मुसलमानी अमलदारी मे रहस्यवाद को लेकर जो 'निर्गुण भक्ति' की बानी चली वह बाहर से -- अरब और फारस की ओर से -- आई थी। वह देशी वेश मे एक विदेशी वस्तु थी। इधर अँगरेज़ों के आने पर ईसाइयों के आन्दोलन के बीच जो ब्रह्मो-समाज बंगाल में स्थापित हुआ उसमें भी 'पौत्तलिकता'*


  • इस शब्द का प्रचार ब्रह्मो-समाज में खूब था। यह अँगरेज़ी के

Idolatory शब्द का अनुवाद है। इसी प्रकार महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा प्रवर्तित "सत्यं, शिव, सुन्दरम्" भी -- जिसे आज कल कुछ लोग उपनिषद वाक्य समझ कर "हमारे यहाँ भी कहा है" कह कर उद्धृत किया