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काव्य में रहस्यवाद


का भय कुछ कम न रहा। अत उसकी विनय और प्रार्थना जब काव्योन्मुख हुई तब उसमे भी 'रहस्यवाद' का सहारा लिया गया। सारांश यह कि रहस्यवाद एक साम्प्रदायिक वस्तु है; काव्य का कोई सामान्य सिद्धान्त नही।

भारत में काव्य-क्षेत्र इस प्रकार के वादो से बिल्कुल अलग रखा गया। यहाँ 'रहस्य' और 'गुह्य' योग तत्र आदि के भीतर ही रहे। भक्तिमार्ग के सिद्धान्त-प्रतिपादन में भी इधर उधर इनकी कुछ झलक रही। पर कविता में भक्तो की भी वाग्धारा ने स्वाभाविक भाव-पद्धति का ही अनुसरण किया। उसके भीतर न तो उन्होंने रहस्यवाद का सहारा लिया, न प्रतिविंववाद का -- यद्यपि वेदान्त के और वादो के साथ प्रतिबिंववाद का निरूपण पहले भारतीय दर्शन मे ही हुआ। महाभारत के समय में ही यहाँ भक्तिमार्ग की प्रतिष्ठा हुई। वासुदेव या भागवत सम्प्रदाय के भीतर नर-नारायण या भगवान् के अवतार श्रीकृष्ण की उपासना


करते है -- अँगरेजी के The True, the Good and the Beautiful, का अनुवाद है। इस पदावली का प्रचार योरप के काव्य-समीक्षा-क्षेत्र में पहले बहुत रहा है, जैसा कि रिचर्ड्स (I A Richards) ने कहा है --

"Thus arises the phantom problem of the aesthetic mode or aesthetic state -- a legacy from the days of abstract investigation into the Good, the Beautifal and the Tiue".

हमें तो सब प्रकार की गुलामी से 'साहित्यिक गुलामी' का दृश्य सबसे खेदजनक प्रतीत होता है।