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काव्य में रहस्यवाद

चली। नर मे नारायण की पूर्णकला का दर्शन आरम्भ में 'गुह्य' या 'रहस्य' के रूप में ही कुछ लोगों ने किया, यह ठीक है। पर 'रहस्य' की समाप्ति वहीं पर हो गई। अवतारवाद मूल में तो रहस्यवाद के रूप मे रहा, पर आगे चल कर वह पूर्ण प्रकाशवाद के रूप मे पल्लवित हुआ। रहस्य का उद्घाटन हुआ और राम कृष्ण के निर्दिष्ट रूप और लोक-विभूति का विकास हुआ। उसी प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति या कला को ले कर हमारा भक्ति-काव्य अग्रसर हुआ; छिपे रहस्य को ले कर नहीं।

श्रीकृष्ण ने नर या नरोत्तम के रूप मे आ कर कहा कि "सब भूतों के भीतर रहनेवाली आत्मा मैं हूॅ"। अर्जुन को इस रहस्य पर विस्मय हुआ। पर एक ओर का वह रहस्य और दूसरी ओर का वह विस्मय, भक्ति या काव्यमयी उपासना के आधार नहीं हुए। उसके लिए भगवान् को फिर कहना पड़ा कि "मैं पर्वतों में मेरु हूँ, ऋतुओ मे वसन्त हूँ और यादवो मे वासुदेव हूँ"। इस प्रकार जब प्रकृति की विशाल वेदी पर -- अव्यक्त रूप में उसके भीतर (Imnyanent) या बाहर (Transcendent) नहीं -- भगवान् के व्यक्त और गोचर रूप की प्रतिष्टा हो गई तब काव्यमयी उपासना या भक्ति की धारा फूटी जिसने मनुष्यों के सम्पूर्ण जीवन को -- उसके किसी एक खण्ड या कोने को ही नहीं -- रसमय कर दिया।

श्रीकृष्ण के पूर्वोक्त दोनो कथनों के भेद पर सूक्ष्म विचार करने पर भारतीय भक्तिकाव्य का स्वरूप खुल जायगा। पहले