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काव्य में रहस्यवाद


आ सकता। केवल 'असीम' और 'अनन्त' शब्द रखने या रटने से यह कभी नहीं कहा जा सकता कि असीम या अनन्त कल्पना के भीतर आया हुआ है, उसकी सचमुच अनुभूति हो रही है।

यह ठीक है कि किसी के सामने न रहने पर उसके प्रति जो प्रेमानुभूति होती है उसमें आलम्बन के स्थान पर उसकी कल्पना- त्मक मूर्ति ही रहती है; पर उस मूर्ति या रूप का ग्रहण चित्रवत् ही होता है। उसके प्रत्यक्ष अर्थात् अधिक गोचर रूप में दर्शन, स्पर्श आदि की वासना बनी रहती है जिसकी अभिव्यक्ति कभी- कभी अभिलाप के रूप मे होती है। राम या कृष्ण का ध्यान करनेवाले भक्त को भी ध्यान में आई हुई काल्पनिक मूर्ति का आना ही साक्षात्कार नहीं समझ पड़ता। यदि ऐसा होता तो ध्यानपूर्वक अभिलाप का कुछ अर्थ ही न होता। सारांश यह कि भारतीय भक्ति-काव्य अनुभूति की स्वाभाविक और वास्तविक पद्धति को लेकर ही चला है; उसमें किसी 'वाद' के द्वारा विप- र्यय करके नहीं। वह अभिव्यक्ति या प्रकाश की ओर उन्मुख है; रहस्य या छिपाव की ओर नहीं।

अच्छी तरह विचार करने पर यह प्रकट होगा कि "अज्ञान का राग" ही अन्तर्वृत्ति की रहस्योन्मुख करता है। मनुष्य की रागात्मिका प्रकृति में इस अज्ञान के राग का भी ठीक उसी प्रकार एक विशेष स्थान है जिस प्रकार ज्ञान के राग का। ज्ञान का राग बुद्धि को नाना तत्त्वों के अनुसन्धान की ओर प्रवृत्त करता है,और उसकी सफलता पर तुष्ट होता है। अज्ञान का राग मनुष्य के