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काव्य में रहस्यवाद


ज्ञान-प्रसार के बीच-बीच में छूटे हुए अन्धकार या धुँधलेपन की ओर आकर्षित करता है तथा बुद्धि की असफलता और शान्ति पर तुष्ट होता है। अज्ञान के राग की इस तुष्टि की दशा में मानसिक श्रम से कुछ विराम-सा मिलता जान पड़ता है और उस अन्धकार या धुँधलेपन के भीतर मन के चिर-पोषित रूपों की अवस्थिति के लिए दृश्य-प्रसार के बीच अवकाश मिल जाता है। शिशिर के अन्त में उठी हुई धूल छाई रहने के कारण किसी भारी मैदान के क्षितिज से मिले हुए छोर पर वृक्षावलि की जो धुॅधली श्यामल रेखा दिखाई पड़ती है उसके उस पार किसी अन्नात दूर देश का बहुत सुन्दर और मधुर आरोप स्वभावतः आप-से-आप होता है। मनुष्य की सुदूर आशा के गर्भ में भरी हुई रमणीयता की कैसी मनोहर और गोचर व्यंजना उसके द्वारा होती है --

धुँधले दिगन्त में विलीन हरिदाभ रेखा,
किसी दूर देश की-सी झलक दिखाती है।
जहाँ स्वर्ग भूतल का अन्तर मिटा है चिर
पथिक के पथ की अवधि मिल जाती है।
भूत औ भविष्यन् की भव्यता भी सारी छिपी
दिव्य भावना-सी वही भासती भुलाती है।
दूरता के गर्भ में जो रूपता भरी है वही
माधुरी हो जीवन की कटुता मिटाती है।

इसी प्रकार दूर से दिखाई पड़ती हुई पर्वतों की धुँधली नीली चोटियाँ भी मनोवृत्ति को रहस्योन्मुख करती हैं और अपने भीतर