जगत् की विघ्न-बाधा, अत्याचार, हाहाकार के बीच ही जीवन के प्रयत्न सौन्दर्य की पूर्ण अभिव्यक्ति तथा भगवान की मंगलमयी शक्ति का दर्शन होता है। अतः जो आँख मूंद कर काव्य का पता जगत् और जीवन से बाहर लगाने.निकलते हैं वे काव्य के धोखे मे, या उसके बहाने से, किसी और ही चीज़ के फेर में रहते हैं। इसी प्रकार जो लोग ज्ञात या अज्ञात के प्रेम, अभिलाप, लालसा या वियोग के नीरव सरव क्रन्दन अथवा वीणा के तार झकार तक ही काव्यभूमि समझते हैं उन्हे जगत् की अनेकरूपता और हृदय की अनेक-भावात्मकता के सहारे अन्धकूपता से बाहर निकलने की फिक्र करनी चाहिए। निकलने पर वे देखेंगे कि काव्यभूमि कितनी विस्तृत है । जितना विस्तार जगत् और जीवन का है उतना ही विस्तार उसका है। काव्यदृष्टि से यह दृश्य जगत् ब्रह्म की नित्य और अनन्त कल्पना है जिसके साथ उसका नित्य हृदय भी लगा हुआ है।
यह अनन्त-रूपात्मक कल्पना व्यक्त और गोचर है - हमारी आँखो के सामने विछी हुई है । समष्टि रूप में यह शाश्वत और अनन्त है। इसी की भिन्न भिन्न रूपचेष्टाओ की ओर हृदय के भिन्न-भिन्न भावो को अपने निज के सम्बन्ध प्रभाव से मुक्त करके प्रवृत्त करना ब्रह्म की व्यक्त सत्ता में अपनी व्यक्त सत्ता को लीन करना है।इस पुनीत भावभूमि मे जब तक मनुष्य रहता है तब तक वह अनन्त काव्य के भावुक श्रोता या द्रष्टा के रूप मे रहता है। कुछ लोगो का यह खयाल कि काव्यानुभूति एक और ही प्रकार की