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काव्य में रहस्यवाद


(form) का भेद ऊपर सूचित किया गया। स्वाभाविक रहस्य, भावना-सम्पन्न कवि प्रकृति का कोई खंड लेकर वस्तु-व्यापार की संश्लिष्ट और श्रृङ्खला-बद्ध योजना द्वारा पूर्ण दृश्य का विधान करते चलते हैं। उनकी रूप-योजना विस्तीर्ण और जटिल होती है तथा कुछ दूर तक अखंड चलती है, पर साम्प्रदायिक या सिद्धान्ती रहस्यवादी कुछ बँधी हुई और इनी-गिनी वस्तुओ की ठीक उसी प्रकार अलग-अलग झलक दिखाकर रह जाते है जिस प्रकार हमारे पुराने श्रृंगारी कवि, ऋतुओं के वर्णन में, उद्दीपन-सामग्री दिखाया करते हैं। इसी लिए स्वाभाविक रहस्य भावना वाले कवि चरित- काव्य या प्रबन्ध-काव्य का भी बराबर आश्रय लेते हैं; पर साम्प्रदायिक रहस्यवादी मुक्तकों या छोटे छोटे रचना-खंडों पर ही सन्तोष करते हैं। प्रथम कोटि के कवियों में दृश्य के संश्लिष्ट प्रसार के साथ-साथ विचार और भाव बड़ी दूर तक मिली हुई एक अखंड धारा के रूप मे चलते हैं। पर दूसरी कोटि के कवियों में यह अन्विति (Unity) और मनोहर प्रसार अत्यन्त अल्प या नहीं के बराबर होता है। अतः इस दूसरी कोटि मे वड्सवर्थ और शेली क्या कालरिज भी नहीं आ सकते जिनकी रचनाओ में बहुत ही संश्लिष्ट और जटिल दृश्य-विधान प्रस्तुत रूप मे -- रहस्य-वादियो के समान अप्रस्तुत रूप में नहीं -- पूरी मूर्तिमत्ता के साथ दूर तक चलते पाए जाते हैं।

पाश्चात्य रहस्यवाद और पाश्चात्य स्वाभाविक रहस्य-भावना का थोड़ा विस्तृत उल्लेख इस लिए करना पड़ा कि आजकल