पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/१३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२८
काव्य में रहस्यवाद


विचारो की पराधीनता के कारण योरप ही 'जगत्' समझा और कहा जाता है। जो कुछ अब तक कहा गया उससे इतना तो स्पष्ट हो गया होगा कि योरप का सिद्धान्ती रहस्यवाद, जो ब्लेक और ईट्स आदि में पाया जाता है, वह अरब-फारस के सूफियो के यहॉ से गया है। उसके पहले यहूदियो और कैथलिक सम्प्रदाय के ईसाइयों में जो रहस्य-भावना प्रचलित थी वह ईश्वरवाद (Theism) के भीतर थी। उसमें उस प्रेम-पूर्ण परम पिता के दया-दाक्षिण्य का आभास जगत् की नाना वस्तुओं और व्यापारी में रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखा जाता था। सूफियों के रहस्यवाद में सर्ववाद (Pantheism) या अद्वैतवाद (Monism) के साथ प्रतिविम्बवाद का योग था। वेदान्त में सर्ववाद और प्रतिविम्बवाद एक ही नहीं है। सर्ववाद वेदान्त का पुराना रूप है। उसके उपरान्त विवत्तवाद, दृष्टि-सृष्टिवाद, अजातवाद आदि जो कई वाद, ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध-निरूपण में, चले उनमें विम्ब-प्रतिविम्ब-वाद भी एक है।

सर्ववाद का अभिप्राय यह है कि व्यक्ताव्यक्त, मूर्त्तामूर्त, चिदचित् जो कुछ है सब ब्रह्म ही है। इस पुराने वाद के अनुसार जगत् जिस रूप में हमारे सामने है उस रूप में भी ब्रह्म ही का प्रसार है। प्रतिविम्ववाद के अनुसार जिस रूप में जगत् हमारे सामने है उस रूप में ब्रह्म तो नहीं है 'हाँ, उसकी छाया या प्रति- बिंब अवश्य है॥ सूफियों ने आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध मे तो अद्वैतवाद ग्रहण किया, पर जगत् और ब्रह्म के सम्बन्ध में