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काव्य में रहस्यवाद


उसी का यहाँ विचार करना है। योरपीय भाषाओं में वाग्वैचित्र्य का विधान अधिकतर उन भाषाओं की लाक्षणिक चपलता के बल पर होता है। प्रत्येक भाषा की लाक्षणिक प्रवृत्ति उसके बोलने- वालों की अन्तःप्रकृति और संस्कारो के अनुरूप हुआ करती है। अतः एक भाषा के लाक्षणिक प्रयोग दूसरी भाषा में बहुत कम जगह काम दे सकते हैं।

विलायती रहस्यवाद की कविताओं में बाहरी विशेषता जो दिखाई पड़ी, वह थी लाक्षणिक प्रगल्भता और वाग्वैचित्र्य। अतः उसका अनुकरण सबसे पहले और अधिक उतावली से हुआ; इससे ठीक ढंग पर न चला। अधिकतर तो अनुकरण न होकर अवतरण हुआ जिससे वैचित्र्य की तत्काल सिद्धि दिखाई पड़ी। एक भाषा के पदविन्यास, लाक्षणिक प्रयोग और मुहावरे इत्यादि यदि शब्द-प्रति-शब्द दूसरी भाषा मे रख दिए जायॅ तो यों हो एक तमाशा खड़ा हो जाता है। अँगरेज़ी के किसी एक साधारण पैरा- ग्राफ का शब्द-प्रति-शब्द अनुवाद करके सामने रखिए और उसकी विचित्रता देखिए। तुर्की या चीनी का ऐसा ही अवतरण सामने रखिए तो और ही बाहर दिखाई दे। विलायती रहस्यवाद जब बंग-भाषा-साहित्य के एक कोने से होता हुआ हिन्दी में आ निकला तब उस पर दो भाषाओ के अजनबीपन की छाप दिखाई पड़ी। बहुत-कुछ वैचित्र्य तो इस अजनबीपन मे ही मिल गया। पर यदि लाक्षणिक विधान अपनी भाषा की गति-विधि के अनुसार होता तो क्या अच्छी बात होती!