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काव्य में रहस्यवाद


अभिव्यंजना-वाद के प्रसंग में हम दिखा चुके हैं कि उसके अनुकूल विलायती रचना के अनुकरण को हद से बाहर घसीटने के कारण छायावाद समझकर लिखी जानेवाली कविताओं में अप्रस्तुत वस्तु-व्यापारों की बड़ी लंबी लड़ी के अतिरिक्त और कुछ सार नहीं होता। सब मिलाकर पढ़ने से न कोई सुसंगत और नूतन भावना मिलेगी, न कोई विचारधारा और न किसी उद्भावित सूक्ष्म तथ्य के साथ भाव-संयोग, जिसका कुछ स्थायी संस्कार हृदय पर रहे। अप्रस्तुत विधान, चाहे वे किसी रूप में रखे जायँ, वास्तव में अलंकार मात्र होंगे। अतः ऐसी कविताओ की परीक्षा करने पर उपमान-वाक्यों के ढेर के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। किसी एक कविता के भीतर विचारो या भाव- नाओ का इधर-उधर भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रसार न होते चलने के कारण अप्रस्तुत वस्तुओं में भी पूरी विभिन्नता नहीं होती। एक प्रकार से ढेर भी समान रंग-ढंग की वस्तुओं का ही होता है। अतः एकान्विति (Unity) और सम्बन्ध (Coherence) की, सच पूछिए तो, जगह ही नहीं होती।

पर इन दोनो के बिना अच्छी-से-अच्छी सामग्री का बिखरा हुआ ढेर कला की कृति नहीं कहला सकता। सामग्री परस्पर जितनी ही भिन्न और अनेकांग-स्पशिर्णी होगी उतना ही उनका सामंजस्यपूर्वक अन्वय कला का उत्कृष्ट विधान कहा जायगा। 'छायावाद' का पास लेकर काव्यक्षेत्र में आनेवाली अधिकांश रचनाओं में कोई भावना उठकर कुछ दूर तक सांगोपांग चलती नही