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काव्य में रहस्यवाद


लगी तव मेरे मन में यह वात आई थी कि इसका परिणाम आगे चलकर अच्छा न होगा। आज वही परिणाम 'गद्यमय जीवन' (Prosaic life), सुवर्ण स्वप्न (Golden dream), 'स्वप्न अनिल' (Dreamy atimosphere), 'स्वप्निल आभा' (Dreamy splendour) आदि के रूप में झलक रहा है।

अतः हिन्दी काव्य-क्षेत्र में यदि 'रहस्यवाद' के लिए कुछ अधिक स्थान करना है तो स्वाभाविक रहस्य-भावना का -- उसके वादग्रस्त या साम्प्रदायिक रूप का नहीं -- अवलम्बन करना चाहिए और उसकी व्यंजना के लिए अपनी भाषा की -- विदेशी भाषा की नहीं -- सब शक्तियाँ लगानी चाहिए। भद्दे अनुकरण से काव्य की किसी शाखा का निर्माण नहीं हो सकता। अन्धानु- करण के अभ्यास का अनिष्ट प्रभाव कई तरफ पड़ता है। यहाँ पर हमसे बिना यह कहे आगे नहीं बढ़ा जाता है कि छायावाद की कविताओं की अपेक्षा हमें तो रहस्यभावना पूर्ण जो दो-एक गद्यकाव्य निकले हैं वे अधिक भावुकतापूर्ण और रमणीय जान पड़ते हैं, विशेषतः राय कृष्णदासजी की "साधना"। इसमें न तो साम्प्रदायिक रहस्यवाद के शावर मन्त्र हैं, न 'अभिव्यंजना- वाद' का अभिनय और न शब्दों की विलायती कलावाज़ी। इसका हृदय भी भारतीय है, वाणी भी भारतीय है और दृष्टि भी भारतीय है। जिन अनुभूतियो की व्यंजना है वे कहीं भीतर से आती हुई जान पड़ती हैं, आसमान से उतारी जाती हुई नही।