छायावाद या रहस्यवाद के सम्बन्ध में जान बूझकर या
अज्ञानवश तरह-तरह की भ्रान्ति हिन्दी-पाठकों के बीच फैलाने
की जो चेष्टा की जाती है, वह असभ्यता-सूचक है। यह कहना कि
रहस्यवाद ही वर्तमान युग की कविता है और योरप में चारों
ओर यही कविता हो रही है या तो घोर अज्ञान है या छल।
ब्लेक आदि के पीछे सन् १८८५ मे जो प्रतीकवाद-मिश्रित नूतन
रहस्यवाद फ्रांसीसी साहित्य-क्षेत्र के एक कोने में प्रकट हुआ --
जिसकी नकल बँगला से होती हुई हिन्दी में आई -- वह किस
प्रकार एक साम्प्रदायिक वस्तु है और योरप के अधिकांश
साहित्यिको द्वारा किस दृष्टि से देखा जाता है, यह हम अच्छी
तरह दिखा चुके हैं। दूसरी बात लीजिए। हम नहीं समझते कि
विना हिन्दीवालों की खोपड़ी को एकदम खोखली माने उनके
वीच इस प्रकार के अर्थशून्य वाक्य छायावाद के सम्बन्ध में
कैसे कहे जाते हैं कि "यह नवीन जागृति का चिह्न है; देश के
नवयुवकों के हृदय की दहकती हुई आग है, इत्यादि, इत्यादि"।
भला, देश की नई 'जागृति' से, देशवासियों की दारुण दशा
की अनुभूति से और असीम-ससीम के मिलन, अव्यक्त और
अज्ञात की झाँकी आदि का क्या सम्बन्ध? क्या हिन्दी के
वर्तमान साहित्य-क्षेत्र में शब्द ओर अर्थ का सम्बन्ध विल्कुल टूट
गया है? क्या शब्दों की गर्द-भरी ऑधी विलायत के कला-
क्षेत्र से धीरे-धीरे हटती हुई अब हिन्दीवालों का आँख खोल ना
मुश्किल करेगी?
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काव्य में रहस्यवाद