यदि ऐसा नहीं है तो मासिक पत्रिकाओ में कभी-कभी योरप
की काव्य-समीक्षा की पुस्तकों की केवल आलंकारिक पदावली
बिना किसी विचार-सूत्र के काव्य या कला की आलोचना के
नाम से कैसे निकला करती हैं? किसी अँगरेज़ी या बँगला के
कवि के सम्बन्ध में लिखी हुई लच्छेदार उक्तियाँ किसी नये या
पुराने हिन्दी-कवि के सम्बन्ध में नई आलोचना के रूप में कैसे
भिड़ा दी जाती हैं? ऐसी कार्रवाइयाँ हिन्दी-साहित्य के स्वतन्त्र
विकास मे बाधक हो रही हैं। हिन्दी-पाठकों को इस प्रकार अन्धा
मान लेना हम बड़े अपमान की बात समझते हैं।
यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि हमारे काव्य का,
हमारे साहित्य-शास्त्र का, एक स्वतन्त्र रूप है जिसके विकास की
क्षमता और प्रणाली भी स्वतंत्र है। उसकी आत्मा को, उसकी
छिपी हुई भीतरी प्रकृति को, पहले जब हम सूक्ष्मता से पहचान
लेंगे तभी दूसरे देशो के साहित्य के स्वतंत्र पर्य्यालोचन द्वारा
अपने साहित्य के उत्तरोत्तर विकास का विधान कर सकेंगे। हमे
अपनी दृष्टि से दूसरे देशो के साहित्य को देखना होगा, दूसरे
देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं। जव तक हम इस
विचार-सामर्थ्य का सम्पादन न कर लेंगे तब तक अफ्रिका के
जंगलियों की तरह -- जो अँगरेजों के उतारे कपड़े बदन पर डाल-
कर स्वर्गियो के बीच बड़ी ऐंठ से चला करते हैं -- भद्दी नकल
को ही नवीनता मानकर सन्तोष करते रहेगे और सभ्य-जगत् के
उपहास-भाजन बने रहेगे। हमारी आँख अपना स्वरूप तक न