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काव्य में रहस्यवाद


आँख खोलकर, विचरण करते देखना चाहते हैं। पर यह दिन तभी आ सकता है जब हमारी अन्तर्दृष्टि को आच्छन्न करनेवाले परदे हटेंगे और हमारे विचारो में बल आएगा। इसके पहले हम बाहर के नाना वादों और प्रवादों की ओर आँखें मूँदकर लपका करेंगे। अपने विचार के परीक्षालय में उनकी पूरी जाँच न करके उनके अनुकरण में ही अपने को धन्य माना करेंगे।

इस परीक्षालय की नूतन प्रतिष्ठा के लिए हमें अपनी रसनिरू- पण-पद्धति का आधुनिक मनोविज्ञान आदि को सहायता से खूब प्रसार और संस्कार करना पड़ेगा। इस पद्धति की नीवँ बहुत दूर तक डाली गई है; पर इसके ढाँचो का, नए-नए अनुभवों के अनु- सार, अनेक दिशाओं मे फैलाव बहुत जरूरी है। योरप के साहित्यिक वादों और प्रवादों के सम्बन्ध मे यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि वे प्रतिवर्तन (Reaction) की झोक में उठते हैं और किसी ओर हद के बाहर बढ़ते चले जाते हैं। उनमे सत्य की मात्रा कुछ-न-कुछ रहती अवश्य है, पर किसी हद तक ही। हमे देखना चारो ओर चाहिए; पर सब देखी हुई बातों का सामंजस्य-बुद्धि से समन्वय करना चाहिए। जैसा हम आरम्भ ही में कह चुके हैं, यही सामंजस्य भारतीय काव्यदृष्टि की विशे- षता है। यही सामंजस्य अनेकरूपात्मक जीवन और अनेक भावात्मक काव्य की सफलता का मूल-मन्त्र है।

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