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काव्य में रहस्यवाद


घोर अज्ञान है, अपनी शक्ति का घोर अविश्वास है, अपनी बुद्धि और उद्भावना का घोर आलत्य है, पराक्रान्त हृदय का घोर नैराश्य है, कहाँ तक कहें? घोर साहित्यिक गुलामी है। जब तक इस गुलामी से छुटकारा न होगा तब तक नवीनता के दर्शन कहाँ? नकल के भीतर की नवीनता भी नकल ही के पेट में समा जाती है।

दुनिया जानती है कि जब से फारसी और संस्कृत के काव्यों के अनुवाद योरप के भिन्न-भिन्न देशों में होने लगे तभी से पूरबी रंग (Orientalism) की बहुत कुछ झलक वहाँ की कवि- ताओं में दिखाई पड़ने लगी। पर इस बाहरी रंग को उन्होंने अपने रंग में ऐसा मिला लिया कि इसकी पृथक् सत्ता कहीं से लक्षित नहीं होती। उनके अपने विचारों का ऐसा स्वतन्त्र और सघन प्रसार था कि बाहर से आते हुए विचार उसी में समाते गए। उनकी अपनी विचारधारा इतनी सवल थी कि वाहर से आकर मिले हुए सोते अपनी उछल-कूद अलग न दिखाकर, उसी के वेग को बढ़ाते रहे। इसका नाम है स्वतन्त्र 'प्रगति' और स्वतन्त्र 'विकास'।

अन्त में हम इतना और कहकर अलग होते हैं कि हम सारा काव्यक्षेत्र देव, मतिराम और विहारी आदि के घेरे के भीतर देखनेवाले पुरानी लकीर के फकीर न कभी रहे हैं और न हैं। हम अपने हिन्दी-काव्य को विश्व की नित्य और अनन्त विभूति में स्वच्छन्दता पूर्वक, अपनी स्वाभाविक प्रेरणा के अनुसार, अपन