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काव्य मे रहस्यवाद


प्रत्येक देश मे काव्य का प्रादुर्भाव इसी जगत् रूपी अभि- व्यक्ति को लेकर हुआ। इस अभिव्यक्ति के सम्मुख मनुष्य कहीं प्रेमलुब्ध हुआ, कही दुखी हुआ, कहीं क्रुद्ध हुआ, कही डरा, कहीं विस्मित हुआ और कही भक्ति और श्रद्धा से उसने सिर झुकाया। जब सब एक दूसरे को ऐसा ही करते दिखाई पड़े तब सामान्य आलंवनो की परख हुई और उनके सहारे एक ही साथ बहुत से आदमियों में एक ही प्रकार की अनुभूति जगाने की कला का प्रादुर्भाव हुआ। इसका उपयोग जहाँ दस आदमी इकट्ठे होते -- जैसे, यन में, उत्सव मे, युद्ध-यात्रा में, शोक-समाज में -- वहाँ प्राय होता था। धीरे-धीरे इसी अनुभूति-योग की साधना से कुछ अन्तर्दृष्टि-संपन्न महात्माओं को इस विशाल विश्व- विग्रह के भीतर "परम हृदय" की झलक मिली जिससे कविता और ऊँची भूमि पर आई। वे चराचर के साथ मनुष्य-हृदय का संयोग कराने, सर्वभूतों के साथ मनुष्य को तादात्म्य का अनुभव कराने, उठे।

वाल्मीकि मुनि तमसा के हरे-भरे कूल पर फिर रहे थे। नाना वृक्ष और लताएँ प्रफुल्लता से झूम रही थीं। मृग स्वच्छन्द विचर रहे थे; पक्षी आनन्द से कलरव कर रहे थे। प्रकृति के उस महोत्सव में मुनि के हृदय का भी पूरा योग था। उनकी वृत्ति भी उसमें रमी हुई थी। इतने में देखते-ही-देखते क्रौंच के एक जोड़े का नर-पक्षी, रक्त से लिपटा, गिर कर मुनि के सामने तड़फने लगा। क्रौंची शोक से विह्वल ताकती रह गई। सुख-शान्ति का भंग