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काव्य में रहस्यवाद


या मुॅदे नयन-पलको के भीतर किसी रहस्य का सुखमय चित्र देखने को ही -- 'भी' तक तो कोई हर्ज न था -- कविता कहना, कहाँ तक ठीक है? चारों ओर से बेदखल होकर छोटे-छोटे कनकौवो पर भला कविता कब तक टिक सकती है? असीम और अनन्त की भावना के लिए अज्ञात या अव्यक्त की ओर झूठे इशारे करने की कोई ज़रूरत नहीं। व्यक्त पक्ष में भी वही असीमता और-वही अनन्तता है। व्यक्त और अव्यक्त मे कोई पारमार्थिक भेद नहीं। ये दोनी सापेक्ष और व्यावहारिक शब्द हैं और केवल मनुष्य के ज्ञान की परिमिति के द्योतक हैं। अज्ञात की 'जिज्ञासा' ही का कुछ अर्थ होता है। उसकी 'लालसा' या प्रेम का नहीं। भौतिक जगत् की रूपयोजना लेकर जिस प्रेम की व्यंजना होगी वह भाव की दृष्टि से वास्तव मे भौतिक जगत् की उसी रूपयोजना के प्रति होगा। जगह- जगह जिज्ञासा-वाचक शब्द रख कर उसे किसी और के प्रति बताना या तो प्रिय असत्य या साम्प्रदायिक रूढ़ि ही माना जायगा।

पहले कहा जा चुका है कि जिस प्रकार जगत् अनेकरूपात्मक है उसी प्रकार काव्य भी अनेक-भावात्मक है। प्रेम, अभिलाप, विरह, औत्सुक्य, हर्ष आदि थोड़ी-सी मनोवृत्तियो का एक छोटा सा घेरा सम्पूर्ण काव्यक्षेत्र नहीं हो सकता। इन भावो के साथ और दूसरे भाव -- जैसे, क्रोध, भय, उत्साह घृणा इत्यादि -- ऐसी जटिलता से गुंफित है कि सम्यक् काव्यदृष्टि उनको अलग नहीं छोड़ सकती; चाहे उनका सामंजस्य शेष अन्तःप्रवृत्तियों के साथ कभी कभी मुश्किल से ही क्यो न बैठता हो।