आदि का आरोप हम प्रकृति के रूपो और व्यापारों पर करेंगे वह
सर्वथा अप्रस्तुत अर्थात् अलंकार मात्र होगा, चाहे हम उसे किसी
अलंकार के बँधे साँचे में ढालें या न ढालें । उसका मूल्य एक
फालतू या ऊपरी चीज के मूल्य से अधिक न होगा। चाहे हम
कोई उपदेश निकालें, चाहे साहश्य या साधर्म्य के सहारे कोई
नैतिक या 'आध्यात्मिक' तथ्य उपस्थित करे, चाहे अपनी कल्पना
या भावना का मूर्त विधान करें, वह उपदेश, तथ्य या विधान
प्रकृति के किसी वास्तविक मर्म का उद्घाटन न होगा। अन्त.करण
की किसी अनुभूति का उद्घाटन भी वह तभी होगा जब किसी
सचे भाव से प्रेरित और सम्बद्ध जान पड़ेगा। ऐसे तथ्य, कल्पना
या विचार का -यदि उसकी कुछ सत्ता होगी-मूल्य पहले उसकी
सूक्ष्मता, गंभीरता, रमणीयता, नवीनता आदि की पृथक् परीक्षा
द्वारा, प्राकृतिक रूपयोजना को अलग हटा कर, आँका जायगा।
जव उसमें कुछ सार ठहरेगा तब प्राकृतिक रूपयोजना के साथ
उसके साम्य ( Analogy ) की रमणीयता का विचार होगा।
बनावटी आडवरवाली कविताओं की परीक्षा के लिए इस पद्धति
का वरावर स्मरण रखना चाहिये। इसके द्वारा अप्रस्तुत आरोप
मात्र अलग हो जायगा और यह पता चल जायगा कि कुछ
विचारात्मक या भावात्मक सार या सच्चाई है या नहीं।
कोरे अप्रस्तुत आरोप मात्र पर यदि कोई हृदय की लम्बी-
चौड़ी उछल-कूद दिखाएगा तो या तो वह काव्यगत सत्य से बहुत
दूर होगी, हृदय के किसी सच्चे भाव की व्यंजना न होगी, अथवा