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पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/३६

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काव्य में रहस्यवाद


जल में कुंभ, कुंभ में जल है, चाहरि भीतरि पानी।
फूटा कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथौ गियानी॥

यह वेदांत-ग्रंथों मे लिखा हुआ दृष्टान्त-कथन मात्र है। अच्छा इसी ढंग की एक दूसरी कुछ और विस्तृत रूपयोजना देखिए—

मन न डिगै ताथै तन न डराई।
अति अथाह जल गहिर गंभीर, बाँधि जँजीर जलि बोरे है कबीर।
जल की तरंग उठी, कटी है जंजीर; हरि सुमिरन-तट बैठे है कबीर॥

इसमे ज्ञानोदय द्वारा अज्ञान का बंधन कटने और भवसागर के पार लगने का संकेत है। यह बंधन हरि की कृपा से कटा है, इससे कबीरदास अब उनका स्मरण करते और गुण गाते हैं। यह एक निरूपित सिद्धान्त का वास्तव में घटित तथ्य के रूप मे चित्रण मात्र है। "ज्ञान से मुक्ति होती है और ज्ञान ईश्वर के अनुग्रहसे होता है।" यह एका 'वाद' या सिद्धान्त है। कबीरदासजी इस बात को इस रूप मे सामने पेश करते हैं मानों यह सच-मुच हुई है—वे भवसागर के पार हो गए हैं और फूले नहीं समा रहे हैं। हम जानते हैं कि इसकी व्याख्या के लिए ऐसे बँधे और मँजे हुए वाक्य मौजूद हैं कि "यह तो साधक की उस दिव्य अनुभूति की दशा है जिसमें वह अपने को इस भौतिक कारागार से मुक्त और ब्रह्म की ओर अग्रसर देखता है”। पर यदि कोई कहे कि "यह सब कुछ नहीं; यह एक साम्प्रदायिक सिद्धान्त का काव्य के ढंग पर स्वीकार मात्र है," तो हम उसका मुंह नहीं थाम सकते।