पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/५१

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काव्य में रहस्यवाद उन्होंने कहा कि शुद्ध बुद्धि के द्वारा तो नाम रूपात्मक जगत् से परे वस्तु-तत्त्व तक हम नहीं पहुँच सकते, पर व्यवहार बुद्धि द्वारा पहुँच जाते हैं । इच्छा या कर्मेच्छा पारमार्थिक वस्तु का आभास देती है । यह न तो बुद्धि से बद्ध या नियत्रित है और न वाह्य जगत् के नियमों से | इसपर आदेश करनेवाले केवल नित्य और सर्वगत धर्म-नियम हैं । इच्छा का यह स्वातंत्र्य हमें नाम-रूपात्मक दृश्य जगन् से अगोचर जगत् में ले जाता है जहाँ धर्म-नियम, शुद्ध अमर आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। जीवन का चरम मंगल क्या है ? न अकेला धर्म, न अकेला सुख । धर्म का सुख से कोई स्वत सिद्ध सम्बन्ध नहीं। जीवन के चरम मंगल में धर्म और सुख दोनों की पराकाष्टा है। अब इन दोनों का संयोग कैसे होता है ? कोई मध्यस्थ चाहिए। इस लिए ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ता है। ईश्वर दोनों के बीच संयोग स्थापित करता है। इसी विचार-पद्धति से आत्मा का अमरत्व भी मानना पड़ता है। धर्म की पराकाष्ठा और सुख की पराकाष्ठा के साधन के लिए यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अत अनन्त जीवन मानकर चलना पड़ता है। कट्टर दार्शनिक कांट के इस व्यवहार-पक्ष-निरूपण पर वैसी आस्था नहीं रखते । कांट अपने परमार्थ-पक्ष-निरूपण के लिए ही प्रसिद्ध हैं। विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि कांट का च्यवहारपक्ष-निरूपण उसी दृष्टि से हुआ है जिस दृष्टि से शंकरा- विशेप देखिए 'विश्व-प्रपन्च' की भूमिका ।