पृष्ठ:काव्य में रहस्यवाद.djvu/५३

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४८ कान्य में रहस्यवाद ( Negative ) शब्द है, जिसका अर्थ है छुटकारा । जिससे मोक्षार्थी छुटकारा चाहता है वह दुःख-क्लेशादि का संघात उसे ज्ञात होता है । छुटकारे के पीछे क्या दशा होगी, इसका न तो उसे कुछ बान होता है और न अमिलाप हो सकता है । इसीसे हमारे यहाँ के भक्त लोग, जो ब्रह्म के सगुण रूप में आसक्त होते हैं, मुक्ति के मुँह में धूल डाला करते हैं। जिन्नासा और लालसा में वडा भेद है। जिज्ञासा केवल जानने की इच्छा है। उसका बेय वस्तु के प्रति राग, द्वेप, प्रेम, घृणा इत्यादि का कोई लगावा नहीं होता । उसका सम्बन्ध शुद्ध ज्ञान के साथ होता है। इसके विपरीत लालसा या अभिलाप रतिभाव का एक अंग है। अव्यक्त ब्रह्म की जिज्ञासा और व्यक्त, सगुण ईश्वर या भगवान् के सान्निध्य का अभिलाष, यही भारतीय पद्धति है। अव्यक्त, अभौ- तिक और अज्ञात का अभिलाप यह विल्कुल विदेशी कल्पना है और मजहवी रुकावटों के कारण पैगंबरी मत माननेवाले देशो में की गई है। इसकी साम्प्रदायिकता हम आगे चलकर दिखाएंगे। यहाँ इतना ही कहने का प्रयोजन है कि अव्यक्त, अगोचर ज्ञान- कांड का विषय है। हमारे यहाँ न वह उपासना-क्षेत्र में घसीट गया है , न काव्यक्षेत्र में । ऐसी वेढव जरूरत ही नहीं पड़ी। उपासना के लिए इन्द्रिय और मन से परे ब्रह्म को पास लाने की जरूरत हुई । कहीं तो वह ईश्वर के रूप में केवल मन के पास लाया गया-अर्थात् उसके रूप, आकार आदि की भावना न करके केवल दया, दाक्षिण्य, प्रेम, औदार्य आदि की ही भावना