की गई। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह केवल अन्तःकरणग्राह्य भावना भी गोचर भावना ही है। कही इसके आगे बढ़कर विष्णु, शिव इन देव-रूपो मे—अर्थात् मनुष्य से ऊँची कोटि में—बाह्य-करण-ग्राह्य भावना भी हुई। भारतीय भक्ति-भावना यही तक तुष्ट न हुई। बड़े साहस के साथ आगे बढ़कर उसने नर मे ही नारायणत्व का दर्शन किया। राम और कृष्ण को लेकर भक्तिकाव्य का प्रवाह बड़े वेग से चल पड़ा। सारांश यह कि सान्निध्य का अभिलाष अव्यक्त और अज्ञात को दूसरी ओर छोड़कर, व्यक्त और ज्ञात की ओर ही आकर्षित होता हुआ बढ़ा है और उसी को उसने अपना चरम लक्ष्य भी रखा है। यहाँ के भक्तो का साध्य कैवल्य नहीं रहा।
अब यह देखना चाहिए कि मनुष्य अपनी सुख-सौन्दर्य-भावना को जब पूर्णता के लिए चरम सीमा पर पहुंचाता है तब क्या वह सचमुच व्यक्त, भौतिक या प्राकृतिक के परे हो जाता है? उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि वह इनके भीतर ही रहता है। भावना या कल्पना में आई हुई या संघटित रूप-योजना, चाहे वह कितनी ही दूरारूढ़ हो, व्यक्त प्रकृति-विकार ही रहेगी। अब रही असीम-ससीम और नित्य-अनित्य की बात। हम पहले कह चुके हैं कि समष्टि रूप में यह विश्व या व्यक्त जगत् अनन्त और शाश्वत है। ब्रह्म के मूर्त्त अमूर्त्त दो रूपों में से मूर्त्त और सत् को जो मर्त्य कहा है[१] वह
- ↑ द्वेवाव ब्रह्मणी रूपो मूर्त्तञ्चाैवामूर्त्तन, मर्त्यञ्चामृतञ्च, स्थितञ्च, यञ्च, सच्च त्यज्ञ।—भूर्त्तामूर्त्त ब्राह्मग (वृहदारण्यकोपनिषद)। दृश्य या मूर्त्त के लिए 'सत्' शब्द का प्रयोग उपनिषदों में बहुत जगह हुआ है।